Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ पिछले दो शतकों में आचार्य भिक्षु का यह तेरापंथ गंगा के प्रवाह की भांति विस्तृत से विस्तृततर होता चला गया। वर्तमान में उनकी व्यासपीठ पर इस सम्प्रदाय के दशम आचार्य महाप्रज्ञ आसीन हैं। शास्त्रार्थ- पिछले दो दशकों में आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों की बहुत कटु आलोचना हुई और उस आलोचना का प्रत्युत्तर भी दिया गया। आज से पचास-साठ वर्ष पहले तक शास्त्रार्थ का युग था। शास्त्रार्थ में खींचतान भी होती ही है। इस खींचतान में अचार्य भिक्षु के सिद्धान्त ऐसे विवाद का विषय बन गये जो विवाद न महत्त्वपूर्ण है, न सार्थक। अब शास्त्रार्थ का युग नहीं है। आवश्यकता है कि आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों को खींचतान के धुन्ध से निकालकर देखा जाये। अहिंसा -आचार्य भिक्षु का विशेष योगदान अहिंसा के सम्बन्ध में हैं। आचार्य भिक्षु के बाद महात्मा गांधी ने अहिंसा के ऐसे प्रयोग किये कि अहिंसा की चर्चा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी। पहले आणविक शस्त्रों के आविष्कार होने पर युद्ध के विरुद्ध शान्तिवादी आंदोलन चला और फिर पर्यावरण के संतुलन के बिगड़ने से उत्पन्न खतरे से बचने के लिए पर्यावरण की रक्षा का आंदोलन चला। उसी आंदोलन का एक भाग पशु-क्रूरता-निवारण तथा शाकाहार के प्रचार के रूप में प्रकट हुआ। इस प्रकार अहिंसा के अनेक नये आयाम उद्घाटित हए। आचार्य भिक्षु ने अहिंसा की अवधारणा को जो अवदान दिया उसे युगानुकूल रूप में प्रस्तुत किया जाना मानव-जाति के हित के लिए परमावश्यक है। साहसिक कदम- जैन साधु अपने अनुयायी गृहस्थों में भगवान की तरह पूज्य होते हैं। गृहस्थ जैन साधु में दोष दिखाये-प्रथम तो यही स्थिति अकल्पनीय है, फिर साधु गृहस्थ की बात को सत्य मान ले- यह तो और भी दुर्लभ घटना है। आचार्य भिक्षु ने यही करके दिखाया। इससे उनकी सत्यप्रियता स्पष्ट होती है। गृहस्थ की बात को उचित होने पर मान लेना आचार्य भिक्षु की विनयशीलता को प्रकट करती है। व्यक्तित्व की झलक : व्यवहार में अहिंसा आचार्य भिक्षु ने विरोधियों को न केवल सहन किया प्रत्युत् उनके बीच अपना विनोदी स्वभाव भी बनाये रखा। एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला कि आज आपका मुंह देखा है तो मुझे नरक में जाना पड़ेगा। आचार्य भिक्षु बोले कि जो तुम्हारा मुंह देखता है वह तो स्वर्ग में जाता होगा। व्यक्ति बोला कि यह सच है। आचार्य जी तत्काल बोले कि मैंने तुम्हारा मुंह देखा है तो मेरा तो स्वर्ग जाना निश्चित है। अब तुम अपनी चिन्ता करो। एक कटुता मधुर हास्य में परिणत हो गयी। 58 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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