Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 96
________________ उन (भरतेश्वर) के पट्ट के उदयचन्द्र रूप श्रीनेमिचन्द्र प्रभु उत्तराधिकारी हुए, जो षट्ती रूपी ललना के विलास का निवास हैं, तप के उल्लसित होते हुए सूर्य हैं तथा जिन्होंने अपने भूमि पर फैलने वाले हिमालय के समान धवल (उज्ज्वल) असाधारण गुणों से कणभोजी (कणाद) मुनि के मत को सर्वतः व्यर्थ कर दिया था। यत्र प्रातिभशालिनामपि नृणां सञ्चारमातन्वतां, सन्देहैः प्रतिभाकिरीटपटली सद्यः समुत्तार्यते। नीरन्ध्र विषमप्रमेयविटपिवातावकीर्णे सदा, तस्मिंस्तर्कपथे यथेष्टगमना जज्ञे यदीया मतिः॥6॥ जिस तर्कमार्ग में सञ्चार करने वाले प्रतिभाशाली जनों की भी प्रतिभारूपी किरीटपटली (मुकुटावली) शीघ्र ही सन्देहों द्वारा उतार ली जाती है, हटा दी जाती है, उस (सघन) विषम प्रमेयरूप वृक्षसमूह से व्याप्त तर्क पथ में जिसकी मति यथेष्ट गमन करती थी, निर्बाध चलती थी। यस्मात् प्राप्य पृथुप्रसादविशदां विद्योपदेशात्मिकां, पत्री मुक्तिकरीमतीव जडतावस्त्वन्विता मन्मतिः। विक्षिप्य भ्रमशौल्किकात् कलयतो लब्धाश्रयं मानसे, मध्येवाङ्मयपत्तनं प्रविशति द्वारि स्थिता तत्क्षणात्।।7।। मेरी जड़तायुक्त बुद्धि जिस मुनिवर नेमिचन्द्र जी से विपुल कृपा सहित विद्योपदेशात्मिका युक्ति को प्राप्त कर मन में आश्रय लिए भ्रमों को फैंक कर तत्क्षण ही द्वार से वाङ्मयपत्तन में प्रवेश पा गई। इस पद्य में अधोरेखांकित शब्दों का अन्वय स्पष्ट नहीं हो रहा है। लगता है यहाँ कुछ पाठदोष है। ऊपर हमने श्लोक का भावार्थ लिखा है। यहाँ अन्य हस्तलेखों के आधार पर पाठशोधन की आवश्यकता है। मदमदनतुषारक्षेपपूषा विभूषा, जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरायाः। द्युमुखमखिलतर्कग्रन्थपयेरुहाणां, तदनु समजनि श्रीसागरेन्दुर्मुनीन्द्रः।।8।। मद (गर्व) और मदन कामरूपी तुषार (ओस) को नष्ट करने वाले सूर्यरूप, जिनमुखकमलवासिनी वाग्देवी के विभूषारूप, निखिल तर्कग्रन्थरूपी कमलों के लिए सूर्यरूप श्री सागरचन्द्र नामक मुनीन्द्र उनके (नेमिचन्द्र जी) के पश्चात् हुए। माणिक्यचन्द्राचार्येण तदङ्ग्रिकमलालिना। काव्यप्रकाशसंकेतः स्वान्योपकृतये कृतः॥9॥ . उन्हीं श्री सागरचन्द्र जी महाराज के चरणकमलों के चञ्चरीक (भ्रमर) बने माणिक्यचन्द्राचार्य ने यह काव्यप्रकाश-संकेत' अपने व अन्यों के उपकार के लिए रचा है। 90 - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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