Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 93
________________ हे जीवतेश्वरी ! यह भ्रमर मालती के विरह से चिता पर चढ़ गया है, न कि किंशुक के फूल पर बैठा है। यहाँ भङ्घयन्तरता को स्पष्ट करते हुए माणिक्यचन्द्र कहते हैं कि मेरे द्वारा प्रस्तुत उदाहरण में आरोप पहले है, अपह्नव बाद में। किन्तु इदं ते केनोक्तम्'' इस काव्यप्रकाशगत उदाहरण में अपह्नव पहले तथा आरोप बाद में है। दोनों स्थानों पर क्रमशः- 'यह फूल नहीं किन्तु चिता है' तथा 'कटक नहीं किन्तु स्मरचक्र है' यह अर्थ होता है। संकेतकार का कहना है कि भंग्यन्तर भणितिविशेष होते हैं, जो कदाचित् कथञ्चित् किसी भी काव्य.में निविष्ट हुए देखने को मिल जाते हैं। व्यतिरेक के प्रसंग में काव्यप्रकाशकार ने इसके प्रथम भेद के अनन्तरउपमान के अपकर्ष की अनुक्ति, उपमेय के उत्कर्ष की अनुक्ति व इन दोनों की अनुक्ति से जो अगले तीन भेद दिखाए हैं, उनके लिए माणिक्यचन्द्र स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करते हैंनित्योदितप्रतापस्य तपनेन तुला न ते। (पृ0 251) हे राजन् ! नित्य उदित प्रताप वाले आपकी सूर्य से क्या तुलना हो सकती है? यहाँ नित्योदितप्रतापत्व उपमेयोत्कर्ष हेतु कहा गया है। क्षणोदितप्रतापेन तपनेन तुला न ते। (पृ0 251) हे राजन् ! कुछ समय तक उदित प्रताप वाले सूर्य के साथ आपकी क्या तुलना हो सकती है? यहाँ क्षणोदितप्रतापत्व उपमानापकर्ष हेतु कहा गया है। महीमण्डलमाणिक्य ! प्रतापेन तुला न ते। (पृ0 251) इस पाठ में उत्कर्ष व अपकर्ष के हेतुओं का कथन न होने से यह तीसरे प्रकार की अनुक्ति का उदाहरण बनता है। इसके अनन्तर श्लेषयुक्त भेदों के प्रसंग में मम्मटाचार्य कहते हैं-एवंजातीयकाः श्लिष्टोक्तियोग्यस्य पदस्य पृथगुपादानेऽन्येऽपि भेदाः सम्भवन्ति। तेऽपि अनयैव दिशा द्रष्टव्याः। इस सन्दर्भ में संकेतकार एक स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करते हैं सच्चक्रानन्दनोऽप्येष न तुल्यः तपनस्तव। ससूरस्सझया येन ससूरः सुभटैर्भवान्॥ (पृ0 252) यहाँ संकेतकार कहते हैं- 'अत्रापि हेत्वोरुक्तिः। इवाद्यभावादत्र पूर्वत्रापि आक्षिप्तौपम्ये, द्वयोक्तौ श्लेषव्यतिरिकाद्यो भेदः। अत्रापि श्लिष्टोक्तियोग्यस्य पदस्य पृथग्भावः। अन्येऽपीति एकादश भेदाः। सच्चक्र से आनन्दित करने वाला होने पर भी यह तपन (सूर्य) तुम्हारे तुल्य नहीं है, क्योंकि- 'नाम्ना स शूरः' - वह तो नाम से ही शूर है, किन्तु तुम सुभटों से युक्त होने के कारण वस्तुतः ‘सशूर' हो। यहाँ भी अपकर्ष व उत्कर्ष के हेतुओं का कथन है। आचार्य मम्मट द्वारा अनुमानालंकार के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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