Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 92
________________ भगवान् पार्श्वनाथ विधुतावनीम्= पीड़ित कर दिया है भूमण्डल को जिसने ऐसे कलुष (पाप) को दूर करें। इसी प्रकार उक्त 'सिद्धि' छन्द के प्रत्येक चरण के आरम्भ के सात व अन्त के दो अक्षर छोड़ देने से यह द्रुतविलम्बित बन जाता है द्रुतविलम्बितम् - प्रभुनताघ्रियुगो जलदद्युतिः स्फुटफणासुभगः कमठारिजित्। व्ययविलासगृहं निखिलैनसां हरतु नः सकलः कलिलावलीम्॥ (पृ0 216) इसमें भी पूर्वोक्त जैसा ही वर्णन है- प्रभुओं (राजाओं) द्वारा वन्दित चरणयुगल वाले, मेघ के समान श्याम कान्ति वाले सिर पर स्पष्ट दिखने वाली सर्पफणा से शोभित, कमठारिजित् (कमठ नामक पूर्वभव के शत्रु को जीतने वाले), सकल पापों का लीलापूर्वक विनाश करने वाले कलासम्पन्न भगवान् पार्श्वनाथ हमारे कलुषों को दूर करें। इस प्रकार यह विचित्र श्लोक मुनि माणिक्यचन्द्र ने प्रभु पार्श्वनाथ की स्तुति में बनाया है। इससे इनकी विशिष्ट कवित्वशक्ति स्पष्टतया परिलक्षित होती है। अर्थालयार-विषयक दशम उल्लास के आरम्भ में माणिक्यचन्द्र अपने संकेत के विषय में निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैंदशमोल्लासारम्भे- पारेऽलंकारगहनं संकेताध्वानमन्तरा। सुधियां बुद्धिशकटी कथंकारं प्रयास्यति॥ (पृ0 219) सुधी जनों की बुद्धिरूपी शकटी (गाड़ी) संकेत रूपी मार्ग के अभाव में अलंकार रूप सघन वन के पार कैसे जाएगी? उत्प्रेक्षालंकार के प्रसंग में संकेतकार कहते हैं कि- क्वापि क्विब्विधावामुखे उपमाछाया-निर्वाहे तूपमानस्य प्रकृतेः सम्भवौचित्यात् सम्भावनोत्थाने उत्प्रेक्षा, यथा स्वम् यस्याज्ञया समं पादपद्मद्वयनखद्युतिः। मालतीमाल्यतितरां नमद्भूपालमौलिषु ।। (पृ0 230) जिसकी आज्ञा के साथ ही चरणकमल युगल के नखों की शोभा झुकते हुए भूपालों के मस्तकों पर मालती-माला के समान हो जाती थी अर्थात् जैसे सिर झुकाए राजा उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे वैसे ही उनके चरणों के नखों की द्युति को भी धारण करते थे। यह श्लोक किसके विषय में है, इसका पूर्वापर प्रसंग क्या है ? यह गवेषणीय है। अपहृति का सोदाहरण वर्णन करने के बाद काव्यप्रकाशकार कहते हैं कि ‘एवमियं भङ्गयन्तरैप्यूह्या । काव्यप्रकाशकार की इस उक्ति के सन्दर्भ में भङ्ग्यन्तर से अपहृति का स्वरचित उदाहरण संकेतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-आरुरोह चितामेष मालतीविरहादलिः। न किंशुकस्य कुसुमे वर्तते जीवितेश्वरि ।। (पृ0 237) 86 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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