Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 91
________________ भेदे लघुप्रयत्नतरकृते च भेदे संयुक्तयोः सजातीययोर्वास्तवे विशेषे यमकबन्धो न विरुध्यते । लोकप्रतीत्या तत्रापि श्रुतितुल्यत्वात्' । स्वं यथा यथा नश्यन्ति विघ्नानि यथा नश्श्यन्ति च द्विषः । तथा कुरु गुणालम्ब ! कृपालं वस्सदा मनः ॥ ( पृ0 205) हे गुणालम्ब ! तुम हमारे प्रति अपने मन को ऐसा कृपालु बनाओ, जिससे हमारे विघ्न नष्ट हो जावें तथा हमारे शत्रु नष्ट हो जावें ।' विघ्नानि' यह पाठदोष प्रतीत होता है, क्योंकि विघ्न शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त है। जैसा कि अमरकोष (3.2.19 ) में कहा है- 'विघ्नोऽन्तरायः प्रत्यूहः । इसी प्रकार यमक के प्रसंग में आगे कहते हैं- 'तथा नकारणकाराभ्यामस्वरमकारनकाराभ्यां विसर्गभावाभावाभ्यां च न विरोध इत्यन्ये' । स्वं यथा अप्रमाणमप्रमानमंगीकुर्वन् गुणव्रजम् । देवदेव समक्षोऽसि साधूनामध्वनि व्रजन् । (पृ0 205) अपरिमित गुणसमूह को धारण करने के उपरान्त भी मानरहित बने हुए सज्जनों के मार्ग में चलते हुए हे देवदेव ! तुम सब के समक्ष हो । चित्रकाव्य के प्रसंग में वर्णच्युत का स्वरचित उदाहरण संकेतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं 1 नृपदितिजामरप्रभुनताङ्घ्रियुगो जलदद्युतिर्विभुः, पृथुभुजगाधिपस्फुटफणासुभगः कमठारिजित्तथा । शिवसुखसम्पदव्ययविलासगृहं निखिलैनसां हरो, घनविधुतावनीं हरतु नः सकलः कलिलावलीं जिनः ॥ ( पृ0 216) नृपों दैत्यों देवों द्वारा जिसकी चरणवन्दना की है, जो जलद के समान कान्ति वाले प्रभु हैं, विशाल नागराज के स्फुट फण से सुन्दर बने हुए हैं तथा कमठारिजित् हैं, कल्याणकारिणी सुख सम्पदा के शाश्वत विलासगृह हैं, निखिल पापों के हर्ता हैं - इस प्रकार के 'जिन' भगवान् पार्श्वनाथ हमारी सघन चपलता व सारी तामसिकता हर लें । यहाँ 'सिद्धि' छन्द में श्री पार्श्वनाथ का वर्णन है । 'सिद्धि' छन्द युक्त इस श्लोक के प्रत्येक चरण के आरम्भ के दो व अन्त के सात अक्षर छोड़ने से यह 'प्रमिताक्षरा' छन्द के रूप में परिणत हो जाता है(प्रमिताक्षरा ) दितिजामरप्रभुनताङ्घ्रियुगो भुजगाधिपस्फुटफणासुभगः । सुखसम्पदव्ययविलासगृहं विधुतावनीं हरतु नः सकलः ॥ ( पृ0 216) इसमें भी प्रायः पूर्वोक्त वर्णन ही है - असुरराज व देवराज द्वारा वन्दित चरणयुगल वाले, नागराज की मनोहर फणा से दर्शनीय बने, कलासम्पन्न सुख-सम्पदा के अविनश्वर गृह रूप तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 85 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100