Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 73
________________ का आधार है आदान-प्रदान। कोई सामाजिक प्राणी है तो किन्तु देन है तो वह समाज का कर्जदार हो जायेगा। उस कर्ज को उतारने के लिए उसे देना भी पड़ता है। कुछ दिया तब ही जा सकता है, जब हमारे पास देने को कुछ हो। यह देना तब ही संभव है जब हम संग्रह करें। संग्रह करने में हमें दूसरों को कष्ट देना होता है, संग्रह की रक्षा के लिए भी आततायी के विरुद्ध बलप्रयोग करना होता है। सामाजिक दायित्व बिना परिग्रह के पूरे नहीं हो सकते । किन्तु परिग्रह और हिंसा-दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। परिग्रह के लिए हिंसा होती है और हिंसा के लिए परिग्रह होता है। ये दोनों एक ही वस्त्र के दो छोर हैं। 24 - दूसरी बात, परिग्रह जिस प्रकार हमें चाहिये, उसी प्रकार दूसरों को भी चाहिये। इस कारण संघर्ष की स्थिति बनती है। यह संघर्ष एक सीमा में रहे तो स्पर्धा स्वस्थ बनी रहती है किन्तु सीमा का उल्लंघन करने पर यही संघर्ष आक्रमण बन जाता है। आक्रमण से बचने के लिए आत्म सुरक्षा लिए बल प्रयोग भी कराना पड़ता है। प्रत्याक्रमणकारी हिंसा करना नहीं चाहता किन्तु उसे आत्मरक्षा के लिए हिंसा करने के लिए बाध्य होना होता है। यह स्थिति समाज-धर्म की है। 25 आत्मधर्म- इसके विपरीत आत्मधर्म में परिग्रह अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी है। आत्मा अपने शुद्ध रूप में स्वतः परिपूर्ण है। कोई विजातीय तत्त्व बाह्य अथवा आन्तरिक परिग्रह के रूप आत्मा को अशुद्ध ही कर सकता है। आत्मा को अशुद्ध होने का अर्थ है उसकी परिपूर्णता का आवृत्त हो जाना, अतः परिग्रह मात्र आत्मधर्म का विरोधी है। इसलिए सामाजिक धर्म के अन्तर्गत परिग्रह के लिये किया जाने वाला बल प्रयोग आत्मधर्म के क्षेत्र में अनावश्यक हो जाता है। इसलिये अहिंसा का निरपवाद रूप आत्मधर्म में ही प्रकट हो पाता है। समाज धर्म में अहिंसा का सापवाद रूप प्रकट होता है। समाज के लिये अहिंसा आवश्यक नहीं है - ऐसा नहीं है किन्तु समाज में हिंसा भी इस अर्थ में आवश्यक हो जाती है कि समाज परिग्रह के बिना नहीं चलता और परिग्रह का हिंसा से अविनाभावी सम्बन्ध है। यदि समाज में व्यक्ति किसी मर्यादा का पालन न करें तो सीयता का जन्म ही नहीं हो सकता। यह मर्यादा मुख्यतः एक दूसरे के अधिकार में हस्तक्षेप न करने की है। इस अर्थ में समाज के लिए अहिंसा परम आवश्यक है। बिना अहिंसा के समाज में मत्स्य न्याय प्रवृत्त हो जायेगा । किन्तु जब कोई इस मर्यादा का अतिक्रमण करता है तो न्याय व्यवस्था को दण्ड विधान भी करना पड़ता है। यदि इस मर्यादा का उल्लंघन राष्ट्रीय स्तर पर हो तो सैन्य बल के प्रयोग द्वारा भी आत्मरक्षा करनी होती है। ये समाजधर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़े बल प्रयोग के प्रसंग हैं। - हृदय - परिवर्तन - बल प्रयोग तात्कालिक उपाय हो सकता है। मौलिक तथा स्थायी परिवर्तन तो हृदय परिवर्तन से ही संभव है। आत्मधर्मी यथा स्थितिवाद का समर्थक नहीं है। उसकी तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 67 www.jainelibrary.org

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