Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ भोगे रत्यादिभावानां भोगं स्वस्योचितं ब्रुवन् । सर्वथा रससर्वस्वमर्मास्पार्क्षन्न नायकः ॥ (पृ0 52 ) भट्ट नायक ने अपने अनुरूप ( नायक क्योंकि भोगप्रवण होता है, इस प्रवृत्ति के कारण ) रत्यादिभावों के भोग को रस मानते हुए रस के सर्वस्व को छुआ ही नहीं। यहाँ संकेतकार ने 'नायक' शब्द पर व्यङ्ग्य करते हुए उपर्युक्त बात कही है कि नायक तो प्रायः भोगप्रवण होता है, इसी प्रवृत्ति के अनुरूप भट्ट नायक ने रत्यादि भावों के भोग को रस माना है। अतः उन्होंने भी रस का स्वरूप नहीं समझा, क्योंकि भोग लौकिक होता है और रसानुभव अलौकिक । स्वादयन्तु रसं सर्वे यथाकामं कथञ्चन। सर्वस्वं तु रसस्यात्र गुप्तपादा हि जानते || (पृ0 52) सभी (सहृदय) जैसे भी चाहें, जी भर कर रसास्वादन करें। क्योंकि सहृदय - हृदयगत स्थायी भाव की अभिव्यक्ति को रस मानने वाले आचार्य ने रसनिष्पत्ति को सर्वसाधारण तक पहुंचा दिया, अतः रस का सर्वस्व ( सार तत्त्व) वे साहित्यिक - शिरोमणि श्रीमदमभिनवगुप्तपादाचार्य ही जानते हैं। इस प्रकार यहाँ संकेतकार ने रसनिष्पत्ति-विषयक मतों की पद्यबद्ध समीक्षा की है। पञ्चमोल्लास में संकेतकार ने ध्वनि और गुणीभूतव्यङ्ग्य की संसृष्टि का स्वरचित उदाहरण दिया है, जिसमें उनके विद्यागुरु का बहुत ही भावपूर्ण व काव्यात्मक वर्णन किया है षट्तर्कीललनाललामनि गते यस्मिन्मुनिस्वामिनि, स्वर्गं वाग्जननी शुचां परवशा कश्मीरमाशिश्रियत् । 7 तत्रापि स्फुरितारतिर्भगवती जाने हिमाद्रिं गता तापं तादृशपुत्ररत्नविरहे सोढुं न शक्ताऽन्यथा ।। (पृ0 105 ) षट्तर्की (षड्दर्शनी) रूपी ललना के भूषणभूत जिस मुनि - स्वामी के स्वर्ग सिधार जाने पर माता सरस्वती शोकसन्ताप से सन्तप्त होकर (मानो इस तपन से मुक्ति पाने के लिए ही) शीतल प्रदेश काश्मीर में चली गई, वहाँ भी ताप शान्त न होने पर हिमालय पर चली गई, अन्यथा वह ऐसे पुत्ररत्न के बिछुड़ने से होने वाले तीव्र सन्ताप को कैसे सह सकती थी ? इस पद्य में अपने विद्यागुरु (जो इनके दीक्षागुरु के गुरु थे) उन श्री नेमिचन्द्रप्रभु को सरस्वतीपुत्र बताते हुए यह उत्प्रेक्षा की है कि मानो उनके निधनजन्य उत्कट सन्ताप को शान्त करने के लिए ही सरस्वती माँ पहले काश्मीर व फिर हिमालय चली गई । तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 79 www.jainelibrary.org

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