Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 84
________________ प्रथमोल्लासान्ते - सच्छब्दार्थशरीरस्य काऽलंकारव्यवस्थितिः। यावत्कल्याणमाणिक्य-प्रबन्धो न निरीक्ष्यते ।। (पृ0 11) उत्तम शब्द व अर्थ रूप शरीर वाले (काव्य) की अलंकार -स्थिति तब तक कैसे हो सकती है जब तक ‘कल्याणमाणिक्यप्रबन्ध' नहीं देखा जाता अर्थात् मेरी इस रचना से व्याख्याता व व्यवस्थित अलंकार शास्त्र विशेष रूप से शोभित हो रहा है। इस प्रकार के श्लोक प्रत्येक उल्लास के आदि या अन्त में हैं। ये श्लोक एक प्रकार की प्ररोचनात्मक या प्रशंसात्मक उक्तियाँ हैं, जिनमें उल्लासगत विषय के व्याख्यान में संकेत की उत्कृष्टता प्रतिपादित की है। संकेत की गुणवत्ता व रचनासौष्ठव को देखते हुए ये उक्तियाँ यथार्थ ही प्रतीत होती हैं।. द्वितीयोल्लासान्त- सम्यक् शब्दविलासश्रीस्तेषां न स्याद्दवीयसी। परिच्युता न संकेताद्येषां मतिनितम्बिनी॥ (पृ0 31) जिनकी मति- परिच्युत नहीं हुई है, समुचित शब्दविलास की लक्ष्मी उनसे दूर नहीं है। तृतीयोल्लासान्ते - मनोवृत्ते ! भोक्तुं निबिड़जडिमोग्रापि परितः, परस्मै चेत्काव्याद्भुतपरिमलाय स्पृहयसि। समुद्यद्वैदग्ध्यध्वनिसुभगसर्वार्थजनने, तदा संकेतेऽस्मिन्नवहितवती सूत्रय रतिम् ।।(पृ0 37) हे मनोवृत्ते ! निबिडजडिमा (दृढमूढता) से ग्रस्त होने पर भी यदि तू काव्यरूप अद्भुत परिमल (सुगन्ध) की कामना करती है तो उल्लसित वैदग्ध्य वाले ध्वनि से सुन्दर बने सर्वार्थसाधक संकेत' में सावधान होकर प्रीति कर। भाव यह है कि जो काव्यतत्त्व को जानना चाहते हैं, उन्हें यह संकेत' अवश्य पढ़ना चाहिए। चतुर्थोल्लास में रसनिष्पत्ति-विषयक मतों की उपस्थापना के उपरान्त आचार्य माणिक्यचन्द्र उन मतों की सारासारता को तोलते हुए, उनकी समीक्षा करते हुए कहते हैं-चतुर्थोल्लासे रसनिष्पत्ति-मतानामुपस्थापनान्ते। न वेत्ति यस्य गाम्भीर्यं गिरितुंगोऽपि लोल्लटः। तत्तस्य रसपाथोधेः कथं जानातु शंकुकः।।(पृ0 52). पर्वत सा ऊँचा लोल्लट भी जिसकी गम्भीरता को नहीं जानता, उस रस-सागर की गम्भीरता को शंकुक कहाँ जान सकता है? यहाँ शंकुक शब्द के वाच्यार्थ- 'छोटे शंकुक' (कील) को ध्यान में रखते हुए यह व्यङ्ग्य किया है। भाव यह है कि रसनिष्पत्ति-विषयक भरतसूत्र की व्याख्या में भट्टलोल्लट द्वारा प्रस्तुत किया गया ‘उत्पत्तिवाद' व श्री शंकुक द्वारा प्रस्तुत ‘अनुमितिवाद' यथार्थ नहीं है। 78 । ___तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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