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नषेदे ते लेवाल रे पडे अंतरायो रे।'3° उन्होंने जो कहा वह यह कि समाज धर्म को आत्मधर्मम माना जाए- संसार ने मोखतण उपगार, समदिष्टी हुवे ते न्यारा न्यारा जाणे।।' 31 जो आत्मधर्मी के लिए हिंसा है, वह समाजधर्मी के लिए अहिंसा नहीं बन जाती। ‘साधक श्रावक दोनों तणी, एक अणुकम्पा जाण।' 32 फिर भी सामाजिक धर्म आत्मधर्म में सहायक नहीं बनता - ऐसा नहीं कहा जा सकता। ___ अविकसित जातियों का भौतिक साधनों से सम्पन्न करने का जो प्रयत्न किया जाता है, उसका स्वरूप भले ही आध्यात्मिक न हो, परन्तु परिस्थिति से उत्पन्न हिंसा को रोकने की दिशा में वह महत्त्वपूर्ण कदम है। कभी-कभी लग सकता है कि जब सामाजिक प्राणी को आत्मधर्म के साथ-साथ समाजधर्म का भी पालन करना ही है तो इन दोनों की पृथकता पर बल देना क्या बाल की खाल निकालना नहीं है? वस्तुस्थिति यह है कि इन दोनों धर्मों की पृथकता की उपेक्षा करना दोनों ही प्रकार के धर्मों के हित में नहीं है। समाजधर्म और आत्मधर्म के भेद को समझना आवश्यक है। समाजधर्म सामायिक, आत्मधर्म शाश्वत- आत्मधर्म व्यक्तिगत है। उसमें से समाजधर्म के कुछ सूत्र प्राप्त हो सकते हैं किन्तु पूर्ण समाजधर्म का निर्माण आत्मधर्म से निरपेक्ष रूप में ही हो सकता है। भारत में पिछली कई शताब्दियों से आत्मधर्म ही मुख्य प्रतिपादन का विषय बना रहा, समाजधर्म पर स्वतंत्र चिन्तन नहीं हुआ। फलतः हमारी समाज व्यवस्था निर्बल हो गयी। कुछ आत्मधर्म के विचारकों ने आत्मधर्म का निरूपण कुछ इस प्रकार कर दिया कि उसमें समाजधर्म का भी समावेश हो जाये। इससे अनेक विकृतियां आ गयीं। .
आत्मधर्म शाश्वत है - एस धम्मे धुए, णिइए, सासए । समाजधर्म सामयिक होता है। यदि समाजधर्म को आत्मधर्म के साथ जोड़ दिया जायेगा तो समाजधर्म रूढ़ हो जायेगा, क्योंकि उसमें परिवर्तन करने का अवकाश ही नहीं रहेगा। एक समय सारे संसार में राजतंत्र था। धर्मपुरुषों ने राजा को देवता घोषित करके एक राजनैतिक व्यवस्था को धार्मिक व्यवस्था बना डाला। लोकतंत्र आया तो राजा पदच्युत हो गये। यदि राजा देवता है तो राजा को पदच्युत करके राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र लाकर हमने गलत काम किया। लौकिक व्यवस्था को दैवी व्यवस्था मानने पर तो यही परिणाम निकलेगा किन्तु यदि राजतंत्र को एक लौकिक व्यवस्था ही माना जाये तो राजतंत्र की अपेक्षा लोकतंत्र को लाकर हमने व्यवस्था में सुधार किया - ऐसा माना जायेगा। युद्ध में पुरुषों के मारे जाने से पुरुषों की संख्या कम तथा स्त्रियों की संख्या अधिक होने पर बहुपत्नी प्रथा कभी स्त्रियों के लिए सहारा बनती रही होगी किन्तु आज स्त्रीपुरुषों के संख्या लगभग समान होने पर भी बहुपत्नी प्रथा को धार्मिक अधिकार मानकर अपनाये रहना स्त्री के आत्मगौरव को पद-दलित करना है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 139
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