Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 75
________________ वर्तमान क्षण में जीना। जिस क्षण में राग और द्वेष न हो उस क्षण को हम ध्यान कह सकते हैं, समता कह सकते हैं और उस क्षण को अहिंसा कह सकते हैं।" अहिंसा के इस रूप को परम धर्म कहा जा सकता है। अहिंसा के इस पारमार्थिक स्वरूप की स्वीकृति पूरे भारतीय चिन्तन में व्याप्त है। अहिंसा को ध्यान का पर्यायवाची माने बिना न उपनिषद् के इस वाक्य का मर्म समझा जा सकता है कि साधना के शिखर पर साधक सुकृत और दुष्कृत दोनों को पार कर जाता है और आचार्य कुन्दकुन्द के इस वक्तव्य का रहस्य हृदयंगम हो सकता है कि पाप और पुण्य दोनों ही बेडियां हैं, एक लोहे की बेड़ी है और दूसरी सोने की बेड़ी है। पतंजलि ने बड़ी कुशलता से समाधि की स्थिति को अकृष्ण-अशुक्ल बता दिया। यह पापपुण्यातीत अहिंसा का प्रथम रूप है। किसी को अधर्म से धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना अहिंसा का दूसरा रूप है। जो धर्म के मार्ग पर चल रहा है, उसके लिए सहयोगी बनना अहिंसा का तीसरा रूप है। जो अन्याय कर रहा है उसका असहयोग करना अहिंसा का चौथा रूप है। अहिंसा के ये चारों रूप आत्मधर्म के अंग हैं। समाज धर्म के घटक- इसी प्रकार किसी भी असहाय प्राणी की पात्र-अपात्र का विचार करे बिना मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना प्रथम सामाजिक धर्म है। अपराधी को लौकिक दण्ड विधान के अनुसार दण्डित करना अथवा दण्डित करवाने में सहयोग देना द्वितीय सामाजिक धर्म है। आक्रमण से देश की रक्षा हेतु शस्त्र प्रयोग तृतीय सामाजिक धर्म है। राष्ट्र को वैभवशील बनाने का प्रयत्न करना चतुर्थ सामाजिक धर्म है। अहिंसा का संदेश यह है कि इन सामाजिक धर्मों के पालन में व्यक्ति न्यूनतम हिंसा बरते किन्तु इस प्रक्रिया में अपरिहार्य रूप से किसी को जो कष्ट दिया गया है उसे अहिंसा की गरिमामयी संज्ञा से महिमामण्डित नहीं किया जा सकता। आत्मधर्म का समाज को योगदान __आत्मधर्म जब शोषण का विरोध करता है तो वह किसी प्राणी को दयनीय स्थिति में लाने से रोककर भिक्षा की आवश्यकता को ही समाप्त करने में समाजधर्म का सहायक होता है। वह पाप का निषेध करके अपराधों के मूल पर ही चोट करता है। वह आक्रमण का विरोध करके आत्म-सुरक्षा के लिये किये जाने वाले युद्ध की आवश्यकता को ही मिटाना चाहता है। वह प्रकृति के अत्यधिक दोहन पर रोक लगा कर राष्ट्र के सुस्थिर विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। आत्मधर्म के समाज के लिए इस अमूल्य अवदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती और न यह कहा जा सकता है कि आत्मधर्म समाज विरोधी है। ___ आचार्य भिक्षु पर यह आरोप लगाया गया कि उनका अहिंसा का प्रतिपादन समाज विरोधी है किन्तु उन्होंने समाज धर्म का विरोध करने का निषेध किया है। 'जो दान दे ताने साध तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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