Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 72
________________ आयु और जीवन- आयु और जीवन में अंतर है। जब तक शरीर रहता है तब तक मनुष्य की आयु बनी रहती है किन्तु आयु ही जीवन नहीं है। जीवन है वह समय जो संयम में बीतता है। शरीर का बना रहना हमारे अधीन नहीं है, हमारे अधीन संयम है। इसलिए शरीर के बने रहने की इच्छा करना निरर्थक है। जब तक आयु है, शरीर बना रहेगा, जब आयु शेष हो जायेगी, शरीर छूट जायेगा। इसलिए जीने की इच्छा करना भी व्यर्थ है और मरने की इच्छा करना भी व्यर्थ है जीव जिवे ते दया नहीं मरे ते तो हिंसा मत जाण मारण वाला ने हिंसा कही नहीं मारे हो ते तो दया गुण खाण ।।20 सार्थक है जीवन में संयम की इच्छा करना। परोपकार करते समय भी किसी के जीवित रहने में सहयोग देना विशेष महत्त्व का नहीं है, विशेष महत्त्व का है किसी के संयम पालन में सहयोग करना। भावना का प्रश्न - यह दृष्टि सर्वथा तर्क संगत है किन्तु हम केवल तर्क के आधार पर नहीं चलते हैं। जीवन में भावना का भी स्थान है। कोई भूख से पीड़ित हो और हमारे पास भोजन हो तो उसे भोजन न देना एक प्रकार की क्रूरता ही है। कोई भोजन स्वयं न जुटा सके और किसी दूसरे को उसे भोजन देना पड़े, यह सामाजिक दुर्व्यवस्था का परिणाम है किन्तु व्यवस्था अभी ऐसी आदर्श नहीं है कि कोई भूखा रहे ही नहीं। लाखों लोग कुपोषण अथवा भूख के शिकार होकर प्रतिवर्ष मरते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें उपलब्ध कराना प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक धर्म है किन्तु उस सामाजिक धर्म को आत्मधर्म मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक सामाजिक धर्म अहिंसा नहीं है जबकि अहिंसा ही आत्मधर्म हैं, यह कहना न तो अत्युक्ति है और न अर्थवादी।21 धर्म के अनेक रूप - धर्म शब्द का अर्थ है - धारण करने वाला। समाज को धारण करे सो समाजधर्म और आत्मा को धारण करे सो आत्मधर्म। दोनों जगह धर्म शब्द के प्रयोग का यह अर्थ नहीं है, दोनों एक ही है। समाज की स्थिति के लिए है भौतिक स्तर पर पारस्परिक सहयोग भी आवश्यक है और आत्मा को धारण करता है संयम। किन्तु भौतिक स्तर का पारस्परिक सहयोग को संयम नहीं माना जा सकता, भले ही दोनों को धर्म शब्द से ही अभिहित क्यों न किया जाता हो। गुरुताको नमन काव्य गीत में आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि दूध आक का, दूध गाय का, नाम दूध, पर एक नहीं है । 22 ठाणं सूत्र में कहा गया है कि धर्म एक नहीं दस है,23 किन्तु सबका स्वरूप पृथक् पृथक् है। समाज धर्म - भौतिक साधन शरीर को अनुकूलता प्रदान करता है, भौतिक सम्पन्नता समाज तथा राष्ट्र को सुदृढ़ बनाती है, अतः सामाजिक धर्म में परिग्रह का मूल्य है। समाज धर्म 66 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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