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एक अन्य व्यक्ति उनके पास आया और कहा कि अमुक व्यक्ति आपमें दोष निकाल रहा है। आचार्यश्री तत्काल बोले- अच्छा ही है। कुछ वह निकाल रहा है, कुछ मैं निकाल रहा हूँ। दोष तो निकालने के लिए ही होते हैं। उन्होंने आलोचना को आत्मालोचन में बदल डाला।
एक व्यक्ति को आचार्यजी के पास भड़काकर भेजा गया कि आचार्यजी भगवान् की प्रतिमा को पत्थर बताते हैं। उसने आचार्यजी से पूछा कि क्या यह सच है? आचार्यजी ने कहा कि हम सब प्रतिमाओं को पत्थर की नहीं बताते। सोने की हो तो सोने की, चांदी की हो तो चांदी की और पत्थर की हो तो पत्थर की बताते हैं। उन्होंने बात की दिशा ही मोड़ दी।
एक व्यक्ति ने आचार्यजी से पूछा कि यहां सच्चे साधु कौन हैं? आचार्यजी ने कहा- मैं तुम्हें सच्चे साधु के लक्षण बता देता हूँ। फिर तुम स्वयं देख लेना कि कौन साधु सच्चा है ? कौन झूठा है ? इस प्रकार के व्यक्तिगत आक्षेप करने से बच गये।
एक स्थानकवासी साधु आचार्यजी के पास एकान्त में कुछ बात करके गया। आचार्यजी के साथ साधु हेमराजजी ने पूछा कि वह क्या बता करके गया तो आचार्यजी ने कहा कि वह एक दोष की आलोचना करने आया था। हेमराजजी ने पूछा कि वह किस दोष की आलोचना करने आया था ? तो आचार्यजी ने कहा कि यह बताना मेरे लिए उचित नहीं। जो हम पर विश्वास करे, उसके मर्म उद्घाटित नहीं करने चाहिए।
ऐसी एक नहीं, सैकड़ों घटनायें हैं जो आचार्य भिक्षु के व्यक्तित्व का सौन्दर्य रेखांकित करती हैं। यह उनका असाधारण मनोबल था कि नितान्त प्रतिकूल परिस्थिति में भी उन्होंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया बल्कि सबके प्रति अपना सौहार्द्र बनाये रखा। यह इसलिए संभव हुआ कि वे आमूलचूल करुणा में भीगे हुए थे । सत्य के सब पुजारियों के साथ जो होता है वही आचार्य भिक्षु के साथ भी हुआ। उन्हें जो संकट झेलने पड़े उनकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती। मेरे मित्र साहित्य - रसिक स्वर्गीय श्री कन्हैयालालजी फूलफगर ने अचार्य भिक्षु सम्बन्ध में ठीक ही कहा है -
गंग-जमुन सा निर्मल जीवन सत्य शोध के प्रबल पुजारी, मरघट में भी अलख जगाया अलबेले बाँके अवतारी ।
सुख वैभव भावी पीढ़ी को, कालकूट तुम स्वयं पी गये, मृत्यु भला क्या तुम्हें मारती, मरकर भी तुम पुनः जी गये ||
दूसरी ओर आचार्य भिक्षु की व्यासपीठ पर विराजमान आचार्य महाप्रज्ञ आचार्य भिक्षु की गौरव गाथा इन शब्दों में गायी -
मृत्युधाम में रहकर तुमने, मृत्युंजय! अमृतत्व पा लिया। अन्धकार में रहकर तुमने, सस्वर दीपक राग गा लिया ।। '
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008
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