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पंचास्तिकाय सत् है। वे उत्पत्ति और व्यय के चक्र से मुक्त हैं। उनके पयार्य उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, इसलिए वर्तमान में सत्भूत और भविष्य में असत् होते हैं। पंचास्तिकाय में तीन अस्तिकाय -धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय अमूर्त और गतिशून्य है, इसलिए वे सृष्टि अथवा स्थूल जगत् के मूल कारण नहीं हैं। उनका अस्तित्व सूक्ष्म जगत् तक सीमित है। जीवास्तिकाय अमूर्त है। पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। ये दोनों तत्त्व गतिशील हैं। ये दोनों स्थूल जगत् के मूल कारण हैं। जीव अमूर्त भी है और सूक्ष्म भी है। परमाणु सूक्ष्म है, किन्तु मूर्त है। स्थूल जगत् अथवा दृश्य जगत् का मूल है परमाणु। जीव उसका सहयोगी है। व्यंजन पर्याय जीव और पुद्गल इन दोनों में ही होता है। वह व्यक्त सृष्टि का कारक तत्त्व है। अर्थ पर्याय अव्यक्त है और व्यंजन पर्याय व्यक्त। जैन सिद्धान्त दीपिका में बतलाया गया है - जीव और पुद्गल के विविध संयोगों से यह लोक विविध रूप वाला होता है। इस विविधता का नाम ही सृष्टि है।
सृष्टि के तीन परिणाम हैं - प्रयोग, विनसा (स्वभाव) और मिश्री' इन तीन परिणामों के आधार पर सृष्टि के तीन प्रकार बन जाते हैं - 1. प्रयोगजा सृष्टि, 2. स्वभावजा सृष्टि, 3. मिश्रजा सृष्टि। सिद्धसेनगणि ने एक गाथा उद्धृत कर परिणामी (उपादान), निमित्त और निर्वर्तक- इन तीन कारणों का उल्लेख किया है।' वैशेषिक दर्शन में समवायी, असमवायी और निमित्त - ये तीन कारण माये गये हैं। आगम का प्रतिपाद्य यह है - विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है। प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्र परिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धान्त सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है। ___उमास्वाति ने पुद्गल के कार्यो का वर्गीकरण किया है। उनमें एक कार्य है बंध। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अनेक पुद्गल स्कन्धों का निर्माण होता है। उस निर्माण या पुद्गल स्कन्ध की संरचना के तीन हेतु है -1. प्रयोग, 2. प्रयोग और स्वभाव का मिश्रण, 3. स्वभाव।
शरीर की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है। वह प्रयोग परिणत द्रव्य है।' सिद्धसेन गणि ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है।' अकलंक ने प्रयोग का अर्थ पुरुष के शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है।'
मिश्र और परिणत जीव के प्रयोग और स्वभाव - इन दोनों के योग से जो परिणमन होता है, वह मिश्र परिणत द्रव्य है। सिद्धसेनगणि ने मिश्र का अर्थ किया है जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति, जैसे स्तम्भ और घट ।' अकलंक ने बंध के दो ही भेद बतलाए हैं। उन्होंने मिश्र का स्वतंत्र उल्लेख नहीं किया है। उसकी पूर्ति प्रयोग के दो भेद बतलाकर की हैअजीव-विषयक प्रायोगिक और जीवाजीव विषयक प्रायोगिक। 1. अजीव विषयक प्रायोगिक
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008
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