Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ जाता है। इसी प्रकार जीव के प्रदेशों के विस्तार के अनुरूप ही तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों विस्तार हो जाता है। इस संकोच और विस्तार की प्रक्रिया को शरीर बंध कहा गया है। इसका मुख्य हेतु है समुद्घात। समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और पुनः शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसे समझाने के लिए समुद्घात के दो रूप बतलाए गये हैं 1. पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक, 2. प्रत्युत्पन्नप्रयोग प्रत्ययिक अभयदेवसूरि ने शरीरिबंध' इस पक्ष का उल्लेख किया है। शरीर बंध के पक्ष में तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है, जीव के प्रदेश गौण हैं। शरीरिबंध के पक्ष में जीव के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है तथा तैजस और कर्म शरीर के प्रदेश गौण हैं। षट्खण्डागम" और तत्त्वार्थवार्तिक2 में शरीरिबंध का शरीर बंध से पृथक् निरूपण मिलता है। - पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक - शरीर बंध दो प्रकार का होता है - पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक और प्रत्युपन्न प्रयोग प्रत्ययिक | शरीर बंध का अर्थ • तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों की रचना । उस रचना का प्रत्यय (मूल कारण) है जीव- प्रयोग | वेदना, कषाय, आदि समुद्घात जीव के प्रयत्न से निर्मित होते हैं। सब जीव विभिन्न कारणों से समुद्घात करते हैं। समुद्घात काल में जीव प्रदेशों का बंध होता है। इस बंध में जीव का प्रयोग अतीत कालीन है। इसलिए इसे पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक कहा गया है। 43 प्रत्युपन्न प्रयोग प्रत्ययिक- केवली समुद्घात का कालमान आठ समय है। प्रथम चार समयों में जीव के प्रदेशों का विस्तार और शेष चार समयों में उनका संकोच होता है। पांचवां समय संकोच का पहला समय है। उसकी संज्ञा मंथ' है। इस अवस्था में जीव के प्रदेशों का एकत्रीभाव (संघात होना) प्रारंभ होता है। यह मंथ का समय ही वर्तमान प्रयोग प्रत्ययिक बंध है। जीव के प्रदेशों का अनुवर्तन करते हुए तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। यह संघात छठे, सातवें और आठवें समय में भी होता है, किन्तु संघात का प्रारंभ पांचवें समय में होता है। यह अभूतपूर्व संघात है, इसलिए वर्तमान प्रयोग प्रत्ययिक के लिए यही समय विवक्षित है। भगवती वृत्तिकार ने शरीरिबंध के पक्ष का भी उल्लेख किया है। इस पक्ष के अनुसार तैजसकर्मशरीर वाले जीव के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। 44 शरीर प्रयोग बंध- जीव अपने शरीर का निर्माण करता है। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर तैजस और कार्मण शरीर सदा जीव के साथ रहते हैं। स्थूल शरीर का निर्माण नए जन्म के साथ होता है और जीव की समाप्ति के साथ वह छूट जाता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक-ये तीन स्थूल शरीर हैं। औदारिक शरीर का निर्माण मनुष्य और तिर्यंच (पशु, पक्षी आदि) करते हैं। वैक्रिय शरीर का निर्माण नैरयिक और देव करते हैं। आहारक शरीर का निर्माण लब्धि या योगज विभूति से किया जाता है। औदारिक शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु बतलाए गए हैं 5 तुलसी प्रज्ञा अंक 139 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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