Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ यह फलित होता है कि सृष्टि के मूल तत्त्व पुद्गल और पौद्गलिक शरीर से युक्त जीव है। प्रयोगजा सृष्टि के आठ रूप बनते हैं 1. औदारिक शरीर 2. वैक्रिय शरीर 3. आहारक शरीर 4. तैजस शरीर 5. कार्मण शरीर 6. श्वासोच्छ्रास 7. भाषा 8. मन वर्गणा के परमाणु स्कन्धों का परिवर्तन स्वभाव से होता है, इसलिए वह स्वभावजा सृष्टि है। आगम-साहित्य में प्रयोग, विस्रसा और मिश्र का विशद वर्णन है। मध्यकालीन दर्शन में इस विषय का स्पर्श बहुत ही कम हुआ है, अथवा नहीं हुआ है। अपेक्षा है, आगम के आधार पर दर्शन के रहस्यों का नए सिरे से अनावरण हो। संदर्भ1. जैन सिद्धान्त दीपिका 2. भगवती 8/2 3. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र. 5/16 पृ. 338 4. भगवती वृ. पृ. 32 5. तत्त्वार्थवार्तिक 124, पृ. 363 तत्त्वार्थ वार्तिक 124, पृ. 487 7. तत्त्वार्थाधिगम 5/24 पृ. 360 8. तत्त्वार्थ वार्तिक 5/24 व. पृ.486 9. तत्त्वार्थाधिगम 5/24 पृ. 360 10. तत्त्वार्थ वार्तिक 5/24 व. पृ. 486 11. भगवती शतक 1, 12. तत्त्वार्थाधिगम वृत्ति. 5/24 पृ. 360 13. तत्त्वार्थाधिगम 5/24 पृ. 360 14. भगवती 8/2- 39 15. भगवती 8/2 16. क. भगवती वृत्ति पृ..331, 332 ख. भगवती जोड शतक 8, ढाल 130, गाथा 49 से 131 ग. विस्तार के लिए देखें, उत्तरज्झयणाणि 36/68 से 247 घ. पन्नवणा 1/10 से 88 17. उत्तरज्झयणाणि 36/83, 105, 116, 135, 154, 168,178, 54 - -------- -- - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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