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4. प्रयोग बंध- जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता रहता है। शरीर बड़ा होता है, जीव के प्रदेश फैल जाते हैं। शरीर छोटा होता है, वे संकुचित हो जाते हैं। समुद्घात की अवस्था में प्रदेश फैलते हैं। समुद्घात की सम्पन्नता पर संकुचित हो जाते हैं। 2" इसीलिए जीव के प्रदेश बंध का अनादि विस्रसा बंध से पृथक् निर्देश किया गया है।
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जीव के प्रदेश फैलते हैं और संकुचित होते हैं, इस अपेक्षा से उनका बंध प्रयोग बंध है। भगवती में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीव- इनमें से प्रत्येक के आठ मध्यप्रदेश बतलाए गए हैं। 29 जीव के आठ मध्यप्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित है, इसलिए इनका बंध अनादि विस्रसा बंध होना चाहिए। फिर भी जीव के अन्य प्रदेशों के अनवस्थित सम्बन्ध के कारण इन्हें प्रयोग बंध के विभाग में रखा गया है। अभयदेवसूरि ने प्रयोग बंध का अर्थ जीव के व्यापार से होने वाला प्रदेशों का सम्बन्ध किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ-जीव के प्रदेशों का और औदारिक आदि पुद्गलों का सम्बन्ध है। 30
प्रस्तुत चित्र में आठ मध्यरुचक प्रदेश हैं। इनको क से झ तक संज्ञापित किया गया है। आठ मध्यप्रदेशों में तीन-तीन प्रदेशों का एक-एक प्रदेश के साथ अनादि-अपर्यवसित बंध है। चार प्रदेशों में तीन-तीन प्रदेशों का एक-एक प्रदेश के साथ अनादि अपर्यवसित बंध है। चार प्रदेशों में तीन-तीन प्रदेशों का एक-एक प्रदेश के साथ अनादि अपर्यवसित बंध है। चार प्रदेशों का एक अधोवर्ती प्रतर तथा चार प्रदेशों का एक उपरिवर्ती प्रतर, उनमें से किसी एक विवक्षित प्रदेश का दो पार्श्ववर्ती प्रदेशों तथा एक अधोवर्ती प्रदेश से सम्बन्ध होता है। शेष चार व्यवहित हो जाते हैं, इसीलिए उनके साथ सम्बन्ध नहीं होता है। जैसे क प्रदेश का सम्बन्ध कख + कच से है। ख प्रदेश का सम्बन्ध खक + खग + खछ से है। घ प्रदेश का सम्बन्ध घक + घग + घझ प्रदेश का सम्बन्ध गख + गघ + गज से है। च प्रदेश का सम्बन्ध चछ + चझ + चक से है। छ प्रदेश का सम्बन्ध छज + छच + छझ से है । झ प्रदेश का सम्बन्ध झच + झज + झघ से है। प्रदेश का सम्बन्ध जछ + जग + जझ से है।
है।
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अभयदेवसूरि ने चूर्णि को अपनी व्याख्या का आधार बताया है। टीकाकार की व्याख्या दुर्बोध मान कर उसकी उपेक्षा की है। "
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वृत्तिकार ने चतुर्भंगी का निर्देश किया है
1. जीव के आठ प्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित और शेष प्रदेशों का बंध आदि। 2. अनादि अपर्यवसित - यह भंग शून्य है।
3. सादि अपर्यवसित।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 139
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