Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सम्बन्ध सादि अपर्यवसित होता है। चतुर्दश गुणस्थान में जीव प्रदेशों की जो रचना होती है, वह सिद्ध अवस्था में वैसी ही रहती है। उसका चलन नहीं होता। 4. सादि अपर्यवसित- इसके चार प्रकार हैं - आलापनबंध, आलीनकरण बंध, शरीरबंध, शरीर प्रयोग बंध। 32 षट्खण्डागम में जीव के आठ मध्य प्रदेशों के बंध को अनादि शरीरिबंध कहा गया है। सिद्धसेनगणि ने भाष्यानुसारिणी में आठ मध्यप्रदेशों की चर्चा की है। तत्त्वार्थवार्तिक में जीव के आठ मध्य प्रदेशों की अवस्थिति ऊपर और नीचे बतलाई गई है। वे सदा परस्पर संबद्ध रहते हैं, इसलिए उनका बंध अनादि होता है। जीव के अन्य प्रदेशों का कर्म के निमित्त से संहरण और विसर्पण होता रहता है, इसलिए वे आदिमान हैं। आलापन बंध - आलापन बंध-रस्सी आदि से होने वाला बंध। भगवती सूत्र में बधं के साधनों का नामोल्लेख किया गया है -वेत्रलता-जलीय बांस की खपाची, बल्क-छाला,वरत्राचमड़े आदि की रस्सी, रज्जु-सन आदि की रस्सी, वल्ली-ककड़ी आदि की बेल,कुश-कड़ी और नुकीली पत्तियों वाली घास, दर्भ-डाभ।। आलीनकरण बंध - आलीनकरण बंध एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के श्लेष से होने वाला बंध। उसके चार प्रकार बतलाए गये हैं - 1. श्लेष बंध-श्लेष द्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों का सम्बन्ध, जैसे दीवार, स्तम्भ आदि का सम्बन्ध। इसके कुछ साधनों का उल्लेख किया गया है जैसे सुधा-चूना, चिक्खल-चिकनी मिट्टी, श्लेष, लाख, मोम आदि। 2. उच्चय बंध-राशिकरण, ऊर्ध्वकरण अथवा ढेर। जैसे घास की राशि। 3.समुच्चय बंध-समुच्चय बंध में भी ऊर्ध्वचयन होता है ।उच्चय बंध में केवल राशिकरण होता है और समुच्चय बंध में ईट अथवा पत्थर की चिनाई होती है। इसी प्रकार मार्ग के निर्माण में सड़के बिछाई जाती हैं। इस उल्लेख से पता चलता है कि प्राचीनकाल में चिकनी मिट्टी अथवा पत्थरों के पक्के मार्गों का निर्माण किया जाता था। 4. संहनन बंध-संयोग से होने वाला आकृति निर्माण। इसके दो प्रकार हैं - देश संहनन बंध-अनेक अवयवों की संयोजना से होने वाला बंध जैसे शकट का निर्माण। सर्व संहनन बंध-एकीभाव, जैसे दूध और पानी का सम्बन्ध। शरीर बंध - जीव असंख्य प्रदेशों का संघात है। वे प्रदेश सदा अविभक्त रहते हैं। कर्मशरीर के कारण उनकी रचना बदलती रहती है। उनका संकोच और विस्तार होता रहता है। जीव के प्रदेशों का संकोच होता है, उसके अनुरूप तैजस और कर्मशरीर के प्रदेशों का भी संकोच हो तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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