Book Title: Tulsi Prajna 2008 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि के दो रूप बनते हैं - 1. जीव कृत सृष्टि, 2. अजीव निष्पम्म सृष्टि। जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह जीव कृत सृष्टि है। उसके नानात्व का हेतु है - शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि का वैचित्र्य। भगवती सूत्र में प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीवकृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है। शरीर और इन्द्रिय पौद्गलिक हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श - ये पुद्गल के गुण हैं। संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीवकृत सृष्टि का नानात्व पुद्गल द्रव्य के संयोग से होता है, इसलिए उसके नानात्व के निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है, वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है। जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है- आभोगिक वीर्य और अनाभोगिक वीय। इच्छा प्रेरित कार्य करने के लिए वह आभोगिक वीर्य का प्रयोग करता है। अनाभोगिक वीर्य स्वतः चालित वीर्य है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनोभोगिक वीर्य से होता है। सिद्धसेनगणि ने एक गाथा उद्धृत कर इसका समर्थन किया है।" भगवती सूत्र में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित हैं।2० इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित होता है। ____ बंध स्वाभाविक और प्रायोगिक-दोनों प्रकार का होता है। स्वाभाविक बंध के दो प्रकार हैं-अनादिकालीन और सादिकालीन। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकायइनका प्रदेशात्मक अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय प्रत्येक के दो असंख्य प्रदेश परमाणु जितना भाव-अवयव है। आकाश के दो भाग हैं - लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश के असंख्य और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं। प्रत्येक अस्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर स्वाभाविक सम्बन्ध है, वह अनादिकालीन है। इसका हेतु यह है-ये तीनों अस्तिकाय व्यापक हैं। प्रत्येक अस्तिकाय के प्रदेश व्यवस्थित हैं। उनका संकोच-विस्तार नहीं होता। वे अपने स्थान को कभी नहीं छोड़ते। बंध दो प्रकार का होता है -देश बंध और सर्वबंध। सांकल की कड़ियों का देशबंध होता है। एक कड़ी दूसरी कड़ी से जुड़ी रही है, किन्तु अन्तर्भूत नहीं होती। क्षीर और नीर का सम्बन्ध सर्वबंध है। 46 - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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