Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ थी। सूनी, ठण्डी मौत की जीती-जागती अनुभूति थी वह। लेकिन 'यामाक्रा' के कप्तान और चालक दल ने विलक्षण साहस का परिचय देते हुए जहाज को आगे बढ़ाना जारी रखा। प्रवंचना भरे इस जल-क्षेत्र में प्रवेश करते ही जहाज की तमाम बत्तियां गुल हो गईं। ऐसा घना, ठोस अंधेरा कि बेहद तेज जलने वाली कार्बन आर्क बत्तियां भी एक बुझती चिनगारी से ज्यादा चमकदार नहीं रह गई थीं। चालक-दल के सदस्यों में खांसी का ऐसा दौर चला कि रोके नहीं रुका। जहाज के इंजन में 'स्टीम-प्रेशर' खत्म होने लगा। हारकर कैप्टन को जहाज मोड़ने और लौट चलने का आदेश देना पड़ा। अनुमान से सब काम किया गया लेकिन कई घण्टे जीवन-मृत्यु से जूझते इस जहाज के लोगों को जब सुबह की रोशनी मिली तब उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही कि दूर दराज़ तक उस प्रवंचना का कोई नामो-निशान नहीं था। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रकाश और अंधेरे को समझने का प्रयास मानव इतिहास में लगातार हुआ है। एक वैज्ञानिक ने पूछा-दीपक में प्रकाश कहाँ से आया? विद्यार्थी फूंक मार कर दीप बुझा दिया और पूछा प्रकाश कहाँ गया? यह प्रश्न आज भी जीवित है। कवि की ये पंक्तियाँ कितनी सटीक है :तम दीया जलाओं, अंधेरा बाहर निकल जायेगा। लेकिन अंधेरे को बाहर करने से दीया नहीं जलता॥ जैनों ने प्रकाश और अंधेरे के कणों को स्वतंत्र पदार्थ माना है। अंधेरा, प्रकाश का अभाव नहीं हैं। यह स्वतंत्र पुद्गल पदार्थ है। ईसाई परम्परा में कहा है- जगत की रचना में ईश्वर ने पृथ्वी पहले ही दिन बनाई मगर पानी की सतह और गहराई में अंधेरा व्याप्त था। ईश्वर ने फिर प्रकाश को उत्पन्न किया जिससे दिन और रात प्रारम्भ हुए। अंधेरे और प्रकाश की कहानी अनादि काल से चली आ रही है। 5, छ-20, जवाहर नगर जयपुर (राजस्थान) तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005 - 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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