Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 63
________________ अस्तित्व बोध : मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है- अस्तित्व का बोध । 'आचारांग' में प्रथम प्रश्न अस्तित्व-बोध के विषय में ही उभरा-"इस जीवन से पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं या इस जीवन के बाद मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के बाद क्या होऊँगा? मनुष्य की मूलभूत जिज्ञासा है- स्वसत्ता जिस पर धार्मिक व नैतिक विकास आधारित है। धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप की सारी मान्यतायें अस्तित्व की धारणा पर खड़ी हैं। इसलिए कहा गया कि जो स्वसत्ता को जानता है, वह आत्मवादी, लोकवादी, क्रियावादी और कर्मवादी है।'' मनोविज्ञान मन के दो स्तर मानता है- चेतन और अचेतन । चेतन मन के स्तर पर घटित होने वाली समस्त घटनायें, आचरण, व्यवहार, अचेतन मन का प्रतिबिम्ब होता है। यह बात हजारों वर्ष पहले भगवान महावीर ने कह दी थी कि 'अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे' मनुष्य अनेक चित्त वाला है। हर घटना के साथ उसके रूप बदलते हैं। दमित इच्छायें अचेतन मन में चली जाती हैं, जब वे जागती हैं तो विविध रूपों में व्यक्त होती हैं। कर्मशास्त्रीय भाषा में कहा जा सकता है कि पूर्वार्जित कर्म जब उदय में आते हैं, अपना फल देते हैं, तब स्थूल मन उससे प्रभावित होता है और वह उसके अनुसार ही आचरण करने लग जाता है। प्रश्न उभरता है कि सामाजिक प्रतिबद्धताओं, अवधारणाओं और नियमों में प्रतिबद्ध एक सच्चरित्र आदमी कभी-कभी बाह्य स्तर पर क्यों अकल्पित काम कर बैठता है? फ्रायड के शब्दों में मनोवैज्ञानिक स्तर पर उत्तर है-'काम'। आगम की भाषा में उत्तर है- 'कम्मुणा जायए'। प्रत्येक आचारण के पीछे कर्म की प्रेरणा रहती है। सभी आचरणों का स्रोत है'कर्म' और कर्म का सेतुबन्ध है— राग और द्वेष। आचारांग' में आसक्ति को ही कर्म का प्रेरक तत्त्व कहा है । वस्तुतः कामभोगों के प्रति आसक्ति से ही कर्मबन्ध होता है। उत्तराध्ययन' में कहा है कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंची, तस्सऽन्तंग गच्छई वीयरागो॥ देवताओं सहित सर्वलोक के जो कायिक और मानसिक दुःख हैं, वे कामभोगों की आसक्ति से उत्पन्न हैं। विषय भोग के प्रति आसक्ति समस्त पीड़ाओं की जननी है। आत्मनिष्ठ मनोविज्ञान की प्रस्तुति हुई है भगवान महावीर के शब्दों में -हे धीर पुरुष! विषयभोगों की आकांक्षा और तत्सम्बन्धी संकल्प-विकल्पों का त्याग करो। तुम स्वयं इस कांटे को अन्त:करण में रखकर दुःखी हो रहे हो ।22 हमारे जितने आचरण, प्रवृत्तियाँ, वैभाविक प्रतिक्रियायें हैं, उन सबके पीछे मूलवृत्तियाँ 58 . - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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