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भी प्रायश्चित्त पर विशेष बल दिया गया है। प्रायश्चिकर्ता का मन बालक सम सरल होना चाहिए, क्योंकि अपराधों का छुपाव क्रूरता में होता है। एक झूठ सौ झूठ को जन्म देता है। आगम में कहा- 'सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई'। व्यवहार सूत्र में तो यहाँ तक कहा है कि आचार्य प्रायश्चित्त देते समय प्रायश्चित्तकर्ता की मानसिक शुद्धता देखे। शुद्धाशुद्धि के आधार पर ही समान दोषों को करने वालों में प्रायश्चित्त का भारी अन्तर पड़ सकता है। अतीत काल के प्रायश्चित्त-आलोचना के कारण ही जैन मनुष्य की मृत्यु को आराधक मृत्यु कहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अपराधों की स्वीकृति के बिना मन पर बोझ रहता है। प्रायश्चित्त-पद्धति व्यर्थ मानसिक बोझ को उतार कर स्वस्थता प्रदान करती है। जैन धर्म का प्रायश्चित्त मन से स्वीकृत है- विवशता नहीं। यह दण्ड नहीं जो कि भोगना ही पड़ेगा। भय, कानून या दबाव से आदमी बदलता नहीं। एक व्यक्ति को किसी अपराध में कारागृह की सजा मिली। सजा भुगतने के बाद वह घर लौट रहा था तो जेल का कम्बल भी उसके साथ था। जेलर ने कहा- अरे भले मानस! कम से कम जेल को तो बख्शो। आदमी बोला-साहब! आप चिन्ता न करें, मैं अगले सप्ताह जेल में लौट आऊँगा तब आपका कम्बल भी साथ ले आऊँगा। घटना सच है या झूठ, पता नहीं पर जीवन की दिशाओं को कानून या दण्ड नहीं बदलता। यह कार्य जैन मनो-वैज्ञानिक प्रायश्चित्त पद्धति से ही संभव मानते हैं।
प्रतिक्रमण - प्रायश्चित्त का दूसरा कोण प्रतिक्रमण है। इसका अर्थ है- अतीत को पुनः वर्तमान में जी लेना। सीमा से आगे बढ़े पैरों को पुनः लौटा लेना। अतिक्रमण अतीत की ग्रन्थियों को खोलने का रास्ता है, क्योंकि सम्पूर्ण जीवन के पीछे अतीत खड़ा है। फ्रायड की आश्चर्यजनक प्रतीति यही थी कि वह सम्मोहन और साक्षात्कार के तरीकों से सुदूर अतीत की अतल गहराइयों तक चेतन मन को उतारना । ग्रन्थिविमोचन का यही उपक्रम प्राचीन समय से जैन आगमों में वर्णित है। प्रतिक्रमण में हम सूक्ष्म स्तर पर कृत अपराधों के कारणों की खोज करते हैं। एक-एक ग्रन्थि का विश्लेषण वर्तमान को तनावमुक्त करता है। इस पद्धति को महर्षि पतंजलि 'प्रतिप्रसव' तथा हव्वार्ड इसे 'रिमेम्बरिंग, रि-थिंकिंग व रि-लिविंग' स्मृति अंकन और संवेदन कहते हैं।
प्रतिपक्षी भावना - मानसिक ग्रन्थियों का विश्लेषण कर उसके निरसन हेतु प्रतिपक्षी भावनाओं का प्रयोग भी मनोवैज्ञानिक है । मोहनीय कर्म के विपाक पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। अत: उपशम से क्रोध, मृदुता से मान, ऋजुता से माया और सन्तोष से लोभ को बदला जा सकता है। आगमिक भाषा में इसे चेतना के जागरण की प्रक्रिया कहते हैं।
इन्द्रिय-संयम कायाक्लेश नहीं- जैन धर्म में इन्द्रिय-संयम का विशेष उल्लेख है। इन्द्रिय-संयम करने वाला पाप नहीं करता। मनोविज्ञान में दमन की तरह ही जैन-धर्म के इन्द्रिय संयम को कायक्लेश का नाम देकर अमनोवैज्ञानिक कहा जाने लगा पर इन्द्रिय-संयम
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तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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