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का अर्थ यह नहीं कि इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख कर दिया जाए अपितु विषयभोग के प्रति जुड़े राग-द्वेष के भावों से अलग होना है। कामभोग न किसी को बांधता है और न ही मुक्त करता है। सारा प्रश्न बन्धन और मुक्ति के पीछे खड़े राग-द्वेष भावों का है। व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है। कहा भी है- 'बन्ध पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव'37 जो कर्म बन्धन के निमित्त हैं, वे ही मुक्ति के और जो मुक्ति के निमित्त हैं, वे ही बन्धन के भी।
राग-द्वेष के कारण होने वाले बन्धन और मुक्ति का मूलभूत आधार है मानसिक भावधारा। जैन दृष्टि से जिसे 'लेश्या' कहते हैं। जीवन का हर बुरा-अच्छा पक्ष लेश्या तंत्र पर आधारित है। फ्रायड जिसे लिबिडो कहता है, जुंग जिसे एक सामान्य शक्ति कहता हैशेष सारी उसकी शाखायें हैं, उसी को जैन-धर्म 'तेजस कर्म-शक्ति' कहता है। इसी शक्तितंत्र की चेतना है- लेश्या। इसके द्वारा ग्रन्थितंत्र, कर्मतंत्र संचालित है। यदि ये अशुभ -(कृष्ण, नील कापोत) होंगी तो हमारा व्यक्तित्व दूषित होगा। यदि ये शुभ- (तेज, पद्म शुल्क) होंगी तो सारे अध्यवसाय शुद्ध होंगे। लेश्या भावनात्मक Emotional और मानसिक Mental ओरा निर्मित करती है। यह व्यक्तित्व रूपान्तरण हेतु रासायनिक प्रक्रिया है। आधुनिक 'कलर
थेरोपी' की तरह रंग-चिकित्सा के क्षेत्र में लेश्या के प्रयोग शुरू हो गए हैं। लेश्या की शुद्धि में जैन मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति को भी महत्त्व देते हैं। लेश्या अध्यवसायों की विशुद्धि करती है। अध्यवसायों से बाह्य और आन्तरिक व्यक्ति रूपान्तरित होता है। लेश्या एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा है।
___ जैन-धर्म में अहिंसा को आहत प्रवचन कहा है। प्राणियों की जिजीविषा और सुखेच्छा के आधार पर अहिंसा का मनोवैज्ञानिक रूप उभरा-'सव्वे पाण पिआउया सुहासाया दुक्खपडिकूलो'40 जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ एयं दुल्लमनोहि' 47 सब प्राणियों के भीतर एक प्राण सत्ता की अस्तित्वानुभूति यदि अहिंसा में नहीं होगी तो मात्र विचार और व्यवहार पर उसका कोई मूल्य नहीं। एक व्यक्ति तलवार से किसी को नहीं मारता, परन्तु दमितहिंसा तलवार से उतर कर कलम में आ जायेगी। हिंसा नंगी स्वार्थवृत्ति है। अत: हिंसा का उन्मूलन जीवन रूपान्तरण में है अन्यथा व्यवहार और आचरण की दूरी व्यक्ति को नैतिक बना सकती है किन्तु धार्मिक नहीं। खलील जिब्रान के शब्दों में- "कितने ही ऐसे झूठे हैं, जिन्होंने एक भी झूठ नहीं बोला। कितने ही ऐसे हत्यारे हैं, जिन्होंने किसी का एक बून्द रक्त नहीं बहाया। कितने ही ऐसे व्यभिचारी हैं, जिन्होंने किसी नारी को छूआ तक नहीं" ये व्यक्ति आचरण से धार्मिक नहीं। ये सारी स्थितियाँ दमित इच्छाओं का प्रतिफल है। इन्हें दूर करने हेतु महावीर के इन शब्दों को जीवन आचरण में क्रियान्वित करना होगा कि- संसार और जीवन को खुली आंखों से देखो।
जैन-धर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ज्ञान, कर्म और अनुभूति पर टिका है। यह
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 128
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