Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ सक्रिय हैं, जिन्हें जैन-धर्म में 'संज्ञा' कहते हैं। आगमों में चेतनापरक संज्ञा (सण्णा) शब्द व्यवहार के प्रेरक तथ्यों के अर्थ में रूढ़ हो गया है। संज्ञा शारीरिक आवश्यकताओं व भावों की मानसिक संचेतना है, जो परवर्ती व्यवहार की प्रेरक बनती है। किसी सीमा तक जैन 'संज्ञा' शब्द को मूलप्रवृत्ति के समानार्थक माना जा सकता है। संज्ञाओं का वर्गीकरण : मनोविज्ञान में सामान्यतः चौदह संज्ञायें मान्य हैं(1) पलायन, (2) युयुत्सा, (3) जिज्ञासा, (4) आक्रामकता, (5) आत्मगौरव, (6) आत्महीनता, (7) मातृत्व की संप्रेरणा (पुत्रैषणा), (8) समूह-भावना, (9) संग्रह वृत्ति, (10) रचनात्मक , (11) भोजनान्वेषण, (12) काम, (13) शरणागति, (14) हास्य । जैनागमों में संज्ञाओं का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। मुख्यतः तीन वर्गीकरण हैं (अ) 1. आहार, 2. भय, 3. परिग्रह, 4. मैथुनसंज्ञा। (ब) 1. आहार, 2. भय, 3. परिग्रह, 4. मैथुन, 5. क्रोध, 6. मान, 7. माया, 8. लोभ, 9. ओघ संज्ञा । (स) 1. आहार, 2. भय, 3. परिग्रह 4. मैथुन, 5. सुख, 6. दु:ख,7. मोह, 8. क्रोध 10. मान, 11. माया, 12. लोभ, 13. शोक, 14. लोक, 15. धर्म, 16. ओघ उपर्युक्त वर्गीकरण में प्रथम वर्गीकरण मात्र शारीरिक विवेचन प्रस्तुत करता है जबकि दूसरा और तीसरा शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक प्रेरकों को भी समाविष्ट करता है। इनमें क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद -कषाय और नो कषाय की संज्ञाओं का भी प्रतिनिधित्व है। सारी संज्ञायें कर्म द्वारा प्रभावित होती हैं। जैन दृष्टि से आठ कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। वह श्रद्धा और चरित्र को विकृत करता है। इसके दो भेद हैं- 1. दर्शन मोहनीय, 2. चारित्र मोहनीय कषाय और नोकषाय चारित्र मोहनीय कर्म के ही भेद हैं । कषाय-रागद्वेषात्मक उत्ताप को कहते हैं । जैन आगमों में इसके 16 प्रकार चार वर्गों में विभक्त हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ । अनन्तानुबन्धी कषायों की सन्तति निरन्तर रहती है। तीव्रतम आवेग सहजत: जाते नहीं। इसमें मूर्छा का अनन्त क्रम होता है। मनोविज्ञान इसे ग्रंथिपात कहते हैं। जब यह अनन्त क्रम नष्ट होता है तब सत्य की पहली किरण दिखाई तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122