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जैन-धर्म का मनोवैज्ञानिक पक्ष
डॉ. शान्ता जैन
जैन-धर्म दर्शन का अथाह समुद्र है। यद्यपि दर्शन अनिर्णीत विषयों का भण्डार होता है, फिर भी जब धर्म को विज्ञान के सन्दर्भ में पढ़ा जाये तो मनोविज्ञान स्वत: ही उस धर्म-दर्शन की व्याख्या बन जाता है । जैन मनोविज्ञान की इस चिन्तनयात्रा में अनेक ऐसे पड़ाव हैं, जिन्हें मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझा जा सकता है।
जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नोकर्म की त्रिपुटी है। मानसिक विश्लेषण इन तीनों पर आधारित है। जैन दृष्टि से मन स्वतंत्र पदार्थ नहीं, वह आत्मा का ही विशेष रूप है। मन की प्रवृत्ति कर्म, नोकर्म सापेक्ष है। अत: मनोविज्ञान के सन्दर्भ में इन्हें समझना आवश्यक है।
___आत्मा- चैतन्य गुण सम्पन्न है।' चैतन्य की दृष्टि से सब समान होते हुए भी विकास क्रम समान नहीं। इस तारतम्यता का कारण है कर्म। कर्मआत्मप्रवृत्याकृष्टास्तत्प्रायोग्य पुद्गला कर्मः आत्मा की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट एवं कर्मरूप में परिणत होने वाले पुद्गल कर्म हैं। भोजन, औषध, विष और मद्य आदि पौद्गलिक पदार्थ जैसे प्राणियों को प्रभावित करता है वैसे ही कर्म विपाक प्राणियों को प्रभावित करता है। भोजन आदि का परिपाक जैसे देश, काल सापेक्ष होता है वैसे ही कर्म नोकर्म सापेक्ष होता है।
नोकर्म- सहायक सामग्री कर्मविपाक की कर्म प्राणियों को फल देने में - सक्षम होते हुए भी उनकी क्षमता के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अवस्था, जन्म, पुद्गल, पुद्गल-परिणाम आदि बाहरी परिस्थितियों की अपेक्षाओं से जुड़ी रहती
जैन-धर्म में आत्मा अस्तित्व Pure consciousness के रूप में स्वीकार है। कर्म पुद्गलों से सम्पृक्त आत्मा का विश्लेषण उसी रूप में है, जैसा कि मनोविज्ञान में Self का। 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है- उपयोग लक्षणों जीवः' - उपयोग आत्मा का लक्षण है। चेतना इसका नैश्चयिक गुण है। ज्ञान-दर्शन युक्त
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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