Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ संचित अनुग्रह भी आवश्यक है। 14 मार्शल अर्थशास्त्र को वास्तविक तथा आदर्श विज्ञान दोनों मानते हैं। हाट्रे (Haurtrey), जो मार्शल के प्रबल समर्थक हैं, कहते हैं - अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक् नहीं किया जा सकता । लगभग सभी अर्थशास्त्री इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि संसाधनों के इस्तेमाल में सक्षमता और अर्थव्यवस्था में विकास-प्रदर्शन को सुधारने की आवश्यकता है। सुधार की इस प्रक्रिया में स्थायी समाधान की बुनियाद प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं- 'आज अपेक्षा है- अर्थशास्त्री अध्यात्म शास्त्र पढ़े और अध्यात्मवादी अर्थशास्त्र पढ़े। केवल अर्थशास्त्र अमीरी की समस्या पैदा करेगा, केवल अध्यात्म शास्त्र समाज के लिए काम्य नहीं हो सकता । अमीरी की समस्या से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है संयम प्रधान जीवन-शैली का प्रशिक्षण । गरीबी की समस्या से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है संविभाग की चेतना का प्रशिक्षण ।" संतुलित विकास का चतुष्कोण है 1. आर्थिक व पदार्थ का विकास। 3. नैतिक मूल्यों का विकास । 2. पर्यावरण की चेतना का विकास। 4. आध्यात्मिक चेतना का विकास 117 ग्रंथ और पंथ निकल कर धर्म बाजार में आए :- इस विचार पर बल देते हुए आचार्य महाप्रज्ञ स्वस्थ वर्तमान व सुरक्षित भविष्य की राह दिखाते हैं । अध्यात्म से भावित अर्थ ही उपयोगी हो सकता है । जहाँ भाव आध्यात्मिक नहीं होता और दृष्टिकोण वैज्ञानिक नहीं होता, वहां अनर्थ की संभावना बनी रहती है । आध्यात्मिक होना इसीलिए भी जरूरी है कि प्रत्येक आदमी अपने आप पर कंट्रोल कर सके, अपनी शक्तियों को पहचान सके और अपने निरीक्षण के द्वारा दूसरों के साथ संवेदनापूर्ण व्यवहार कर सके ।" जो व्यक्ति इच्छा का विवेक करना नहीं जानता, इच्छा की काट-छांट करना नहीं जानता, वह कभी स्वाधीन और स्वतंत्र नहीं बन सकता। स्वतंत्रता के लिए जरूरी है इच्छाओं का विवेक करें ।" जो उपलब्ध कान्त और प्रिय भोगों को भी स्वाधीनता पूर्वक छोड़ देता है, वही वस्तुतः त्यागी, संयमी और अपरिग्रही है। इच्छा विवेक के साथ चलता व्यक्ति अपने भीतर निहित संभावनाओं व शक्तियों का भी परिचय पा जाता है। आत्मनिहित ऐश्वर्य का परिचय पा जाने के बाद विषय-सुख, का आकर्षण स्वत: छूटता चला जाता है। कहा गया पदार्थ 'जितनी - जितनी छूटती जाएगी आकर्षण की सीढ़ियां । उतना ही याद करेगी आने वाली पीढ़ियां ॥' सुख का सबसे बड़ा संसाधन मानव स्वयं ही है । अपने भीतर से उभरता सुख सकारात्मक सुख है, निरपेक्ष सुख है, प्रत्यक्ष सुख है, अबाधित सुख है, इसके आगे कहीं कोई तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 53 www.jainelibrary.org

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