Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ की उपलब्धि करते हैं और अपने आप का विलयन वस्तु में कर देते हैं। इस भूमिका में वस्तुएं सर्जक की तरह प्रतीत होती हैं और आदमी का निर्माण करने लगती हैं। व्यामोह में फंसी चेतना व्यक्ति से ऊपर वस्तु को प्राथमिकता देने लगती है। ___ संसाधनों की स्वल्पता की बात भी सदा सच नहीं। चोंच के साथ चुगे की व्यवस्था प्रकृति में सबके लिए है। लेकिन उपभोक्ता संस्कृति ने आदमी को एक चीज की तरह खरीदना और बेचना शुरू कर दिया। इच्छा रूपी आकाश के सामने तो सारे प्राकृतिक संसाधन बौने नजर आते हैं। यही स्वल्पता प्रत्येक मानवीय संबंध की जड़ता का अमूर्त एवं मौलिक आधार है। मानवीय घटनाओं के बीच जब वस्तु स्वल्पता अवस्थित होती है तब वह प्रत्येक प्रकार की हिंसा, शोषण एवं अमंगल का स्रोत हो जाती है। हम जिस जमीन पर खड़े हैं वह किसी और की जमीन भी हो सकती है। हम जिस रोटी को खा रहे हैं वह जाने-अनजाने बहुतों की भूख के लिए होती है। एक की जरूरत की परितुष्टि अनभिप्रेत रूप से दूसरों के लिए एक धमकी है। वस्तुओं की स्वल्पता से बहुसंख्यक व्यक्तियों का व्यावहारिक जगत पारस्परिक संबंधों का एक निषेधात्मक जगत हो जाता है। इस निषेधात्मक जगत में जीने वाला व्यक्ति कभी अबाधित सुख का अधिकारी नहीं हो सकता। इच्छाओं की संतुष्टि की बात भी कभी संभव नहीं। Theary of wontessiness के जनक J.K. Mehta स्वीकार करते हैं-एक इच्छा की आपूर्ति के साथ ही अन्य अनेक इच्छाएं उद्भूत हो जाती हैं। इस तरह एक इच्छा की आपूर्ति व्यक्ति को सुखी बनाने के बजाय दुःखी बना देती है। इसीलिए दुःख को न्यून करने के लिए इच्छा परिसीमन के सिद्धान्त का आज सर्वाधिक महत्त्व है। वैश्वीकरण के दौर से गुजरने के बाद उसका परिणाम देख समाजशास्त्री भी कहने लगे हैं- मिताहारिता का सिद्धान्त अर्थात् न्यूनतम वस्तुओं का ग्रहण और स्वैच्छिक सादगी या संयम से ही सुखद भविष्य को आरक्षित किया जा सकता है। भगवान महावीर ने 25 सौ वर्ष पहले इस संदर्भ में इच्छा-परिमाण या अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया। अर्थशास्त्री फ्रेजर का अभिमत है- जो अर्थशास्त्री अर्थशास्त्री मात्र है वह कि तुच्छ सुन्दर मछली के समान है।" भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी नीति पंडित नेहरू की दूरदर्शिता से बहुत प्रभावित हुई। अपनी भावना व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- राजनीति ने मुझे अर्थशास्त्र की ओर प्रेरित किया और इसने अनिवार्य रूप से मुझे विज्ञान और हमारी सभी समस्याओं तथा स्वयं जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि की ओर प्रेरित किया। अर्थशास्त्री पीगू कहते हैं- अर्थशास्त्र का अध्ययन कोरे दार्शनिक की भावना से नहीं अपितु चिकित्सक की भावना से किया जाना चाहिए। अर्थशास्त्री एली ने लिखा- अर्थशास्त्र विज्ञान से कहीं बढ़कर, एक ऐसा शास्त्र है जो मानव जीवन के अनेक रूपों में व्यक्त है। इसके लिए केवल क्रमानुसार विचार ही नहीं वरन मानवीय सहानुभूत्ति, कल्पना तथा असाधारण मात्रा में ज्ञान का 52 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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