Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 55
________________ प्राकृतिक संसाधनों के अपव्यय से भी ज्यादा दुःखद तथ्य मानव संसाधनों का, मानवीय शक्तियों का निरर्थक चले जाना है। प्राकृतिक संसाधनों के साथ जुड़ी सच्चाई यह है कि जितना-जितना इनका प्रयोग किया जाएगा, उतना-उतना इसका अभाव होते चला जाएगा और इस अभाव से जो परिणाम आएगा, आने वाली पीढ़ियां पूछेगी- हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए क्या छोड़ा? एक ओर भूख ही भूख होगी, एक ओर करुणा ही करुणा, और दोनों के बीच कोई पुल न होगा। प्रयोग के संदर्भ में मानव-संसाधन की स्थिति इससे ठीक विपरीत है। अधिकतम प्रयोग किए जाने से प्राकृतिक संसाधन समाप्ति के दौर की ओर है। प्रयोग न किए जाने से मानव-संसाधन समाप्ति की ओर है। Zig Ziglar का मानना है- Your natural reseurces, unlike the natural researces on plant earth, will be wasted and "used up" only if they are never used at all.' अपने भीतर के अमृत स्रोत से अपरिचित व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि एवं उपभोग से ही सुख मान प्रकृति का दोहन करता जा रहा है। इस सुख-संपूर्ति से जुड़ा विकास ही आज के चिंतन से विकास का मानदण्ड बन रहा है। लेकिन आज की सोच को समाधान की दिशा देने वाले आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का कथन है- सुख के दो रूप हैं- नकारात्मक सुख और सकारात्मक सुख। उनके अनुसार धन नकारात्मक सुख का साधन है। इसे परोक्ष सुख भी कहा जा सकता है। जैसे किसी के पास रहने को मकान नहीं हैं तो अभाव का एक तनाव उसे सता रहा है। धन मिला और मकान हो गया तो मकान के अभाव से होने वाला एक तनाव समाप्त हो गया। यह सुख लगता है। किसी भी अभाव की आपूर्ति से होने वाला सुख नकारात्मक सुख है। अभावजनित दुःख की समाप्ति से होने वाला सुख परोक्ष या नकारात्मक है। इसका हेतु यह है कि जैसे ही एक अभाव की समाप्ति होती है, वैसे ही कई नए अभाव सामने आ जाते हैं। एक आकांक्षा की संपूर्ति के साथ ही कई नई आकांक्षाएं जन्म ले लेती हैं। हर अभाव किसी न किसी आकांक्षा से जुड़ा हुआ है। रोटी मिली, उदरपूर्ति के साथ ही उससे आगे की आकांक्षा फिर जाग जाती है और उस आकांक्षा के तनाव में आदमी और ज्यादा दुःखी हो जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार वास्तविक सुख आवेश की शांति से होने वाला सुख है। आकांक्षा की शांति होने वाला सुख सकारात्मक सुख है, यह भीतर का सुख है। इसमें किसी तरह की प्रतिबद्धता, प्रतिस्पर्धा या परनिर्भरता नहीं है। भीतर के तनाव, आवेश आदि की मुक्ति से ही यह वास्तविक सुख, प्रत्यक्ष सुख हासिल किया जा सकता है। यह सापेक्ष नहीं, निरपेक्ष सुख है। 50 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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