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रोग के हेतु
दर्शन जगत में एक कार्य का एक ही कारण माना गया। जैसे आम की गुठली से आम का पेड़ होगा परन्तु रोग उत्पत्ति में ऐसा नहीं होता। एक ही बीमारी के कई कारण हो सकते हैं, अत: आयुर्वेद एवं कर्म सिद्धान्त रोग के कई कारणों की चर्चा करते हैं।
वात-पित्त-कफ-इन तीनों दोषों का कुपित होना या किसी एक का कुपित होना आयुर्वेद में दोष वैषम्यं रोग: कहा गया। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव भी रोगोत्पत्ति में सहायक होते हैं।
द्रव्य- किसी व्यक्ति को गैस हो गई और वह यदि पापड़ खा ले तो गैस की पीड़ा बढ़ जाएगी।
क्षेत्र- नेपाल, भूटान या दार्जलिंग में जाएंगे तो जल्दी सर्दी लग जाएगी। काल- गर्मी के दिनों में ही लू लगती है, सर्दी में नहीं
भाव- तनाव बढ़ा या कुण्ठा हुई कि अनिद्रा, पाचनतंत्र की गड़बड़ होना स्वाभाविक है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने कहा- द्रव्य, क्षेत्र आदि प्रधान कारण हैं रोग के उत्पन्न करने में पर कर्म के उदय में ये निमित्त कारण भी हैं।
माता-पिता, परिस्थितियां, आन्तरिक परिवेश, रासायनिक-असंतुलन आदि भी रोग के हेतु हैं। अनावश्यक स्मृतियां करना बीमारी का बहुत बड़ा हेतु है।
बीमारी का हेतु केवल शरीर ही नहीं होता, मन भी होता है। मनोकायिक बीमारियां भीतर से आती हैं अर्थात् साइक से आती है। युग के अनुसार चेतना के दो स्तर हैं- माइंड और साइक। बहुत सारी बीमारियां साइक से आती हैं।
रोगों का बहुत बड़ा हेतु है भय। भय बढ़ा कि हृदय, फेफड़े, गुर्दा खराब हो जाते हैं। नकारात्मक भाव शारीरिक व मानसिक रोगों का प्रमुख हेतु बनते हैं।
नंदीसूत्र की टीका में आचार्य मलयगिरि ने लिखा है -अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है। बुरे विचारों द्वारा, बुरी कल्पना द्वारा हृदय का रोग होता है।"
आर्त्तध्यान से व्याकुलता, विक्षिप्तता बढ़ती है। वह व्याकुलता विक्षिप्तता अनेक शारीरिक, मानसिक रोगों का हेतु बनती है। भगवान महावीर ने रोगों की उत्पत्ति के नौ कारण बतलाए हैं-19
____ 1. अच्चासणयाए- अधिक मात्रा में भोजन करने से हमारी प्राणशक्ति अधिक खर्च होती है। रोग का कारण प्राणशक्ति का कमजोर होना। ..
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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