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मध्यलोक- एक युक्तिमूलक निष्पादन
-डॉ. वीरेन्द्र नाहर
जैन आगम तथा शास्त्रों के खगोलशास्त्र विभाग में मध्यलोक (तिर्यकलोक) की जो व्याख्या है वह आज के जनप्रेक्षित प्रेक्षणों से सहमत नहीं होती।
मध्यलोक को युक्तियुक्तपूर्वक, तर्कपूर्वक तथा हमारे दैनन्दिन प्रेक्षणों से जोड़कर इस लेख में यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जो कुछ आगमोंशास्त्रों के दर्शन में लिखा गया है, वह सत्य है। आवश्यकता केवल इतनी है कि हम उन बातों की ढंग से व्याख्या करें। द्वीप तथा समुद्र
जैनदर्शन शास्त्रों में मध्यलोक में जिन द्वीपों तथा समुद्रों का वर्णन है उनके बारे में लिखा है कि समस्त द्वीप-समुद्रों का समुदाय, समकेन्द्री तथा समअक्षीय है। द्वीप-समुद्र में स्थित समस्त तारे तथा नक्षत्रादि मेरू की प्रदक्षिणा करते हैं। यह भी बताया गया है कि मेरू पर्वत से अर्थात् जम्बू के केन्द्र से अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र तक की दूरी आधा रज्जू है। इस प्रकार द्वीप-समुद्रों का जो समुदाय है, उसका व्यास एक रज्जु होता है। चूँकि मध्यलोक की लम्बाई-चौड़ाई भी एक रज्जु ही है, अतः कहा जा सकता है कि 'एन' (असंख्यात) द्वीप समुद्रों के समुदाय का विस्तार मध्यलोक के विस्तार के तुल्य है। साथ ही एक रज्जु का मान 8.15..1020 मीटर (लगभग) है। और यही हमारी गैलेक्सी का व्यास भी है (लगभग) इसलिये कहा जा सकता है कि 'एन' संख्या के द्वीप-समुद्रों का समुदाय और कुछ नहीं अपितु हमारी अपनी गैलेक्सी ही है। (आकाशीय दूरियाँ प्रायः लगभग' ही होती हैं। दूसरे शब्दों में, जैन धर्म में वर्णित मध्यलोक और विज्ञान में वर्णित गैलेक्सी, दोनों की सीमाएं समान हैं । जैन खगोल शास्त्रियों ने गैलक्सीनुमा मध्यलोक को कई समकेन्द्रित तथा समअक्षीय वृत्तीय विभागों (Circular Zones) में बाँट दिया है जिन्हें क्रमश: जम्बद्वीप, लवण समुद्र, घातकी द्वीप, कालोधि समुद्र आदि
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005
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