Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ एक जीव में तथा एक काल में एक ही गुणस्थान पाया जाता है । संसारी जीवों में गुणस्थान का परिर्वतन होता है किन्तु गुणस्थान शून्य स्थिति कभी नहीं आती है । पाँच गुणस्थान शाश्वत हैं जो कभी जीवशून्य नहीं होते हैं - पहला, चौथा, पाँचवां, छट्ठा और तेरहवां गुणस्थान । तीन गुणस्थान अमर हैं, जिनमें जीव का कभी मरण नहीं होता है । वे हैंतीसरा, बारहवां और तेरहवां गुणस्थान । अन्तराल गति में तीन गुणस्थान पाये जाते हैं- पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान । तीन गुणस्थान अप्रतिपाती हैं जिसमें जीव का अधोगमन नहीं होता है । वे है :- बारहवां, तेरहवां और चौदहवां गुणस्थान । 1 मिथ्यादृष्टि, सास्वादन सम्यग्दृष्टि और अविरति सम्यग् दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग पाये जाते हैं। आहारकलब्धि चतुर्दश पूर्वधर मुनि के ही होती है, अतः आहारक काययोग और मिश्र काययोग छट्ठे गुणस्थान में ही पाये जाते हैं । उक्त मुनि आहरक लब्धि का प्रस्फोट कर आहारक शरीर का निमार्ण करते हैं। यह शरीर पूर्ण बनकर जो गमनागमन आदि क्रिया करता है वह आहारक काययोग है । जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य करके औदारिक शरीर में प्रवेश करता है उस समय आहारक औदारिक के संयोग से आहारक मिश्रकाय योग होता है। मिश्र गुणस्थान में दस योग पाये जाते हैं । चार मन के, चार वचन के तथा औदारिक और वैक्रिय काययोग । मिश्र गुणस्थान चार गतियों में पाता है, क्योंकि तत्त्व विषयक शंकास्पद स्थिति चारों गतियों में निर्मित होती है । मनुष्य और तिर्यञ्च गति में चार मन और चार वचन योग के साथ औदारिक काययोग पाता है तथा देव और नरक जाति में चार मन और चार वचन के साथ वैक्रिय काययोग पाता है । देशविरति गुणस्थान में बारह योग पाते हैं। आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण काय योग छोड़कर आहारक और आहारक मिश्र केवल छठे गुणस्थान में ही पाया जाता है तथा कार्मण काययोग अपर्याप्त अवस्था में अथवा केवली समुद्घात दशा में ही पाया जाता है, देश विरति गुणस्थान में बारह योग पाए जाते हैं । अतः प्रमत्त संयत गुणस्थान में चौदह योग पाते हैं । कार्मण काययोग को छोड़कर अप्रमत्त संयत गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक पांच योग पाते हैं - सत्य मन, व्यवहार मन, सत्य वचन, व्यवहार वचन और औदारिक काय योग । ये सभी अप्रमत्त अवस्था के गुणस्थान हैं जिनमें अशुभ योग और लब्धि प्रयोग के लिये किंचित भी अवकाश नहीं है । सयोगी केवली में सात योग पाये जाते हैं, उपरोक्त पाँच योग सभी केवली और अर्हतों में पाते है तथा केवली समुद्घात होने पर केवल ज्ञानी में औदारिक मिश्र और कार्मण काय योग - ये दो और बढ़ जाते हैं। केवल ज्ञानी के आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय, नाम एवं गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं तब उनको परस्पर में बराबर करने के लिये केवली समुद्घात होता है । जब सिर्फ अन्तर्मुहूर्त्त आयुष्य शेष रहता है तभी समुद्घात होता है । तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 43 www.jainelibrary.org

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