Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 41
________________ यह मान पृथ्वी त्रिज्या के लगभग समतुल्य है । यद्यपि आज पृथ्वी की आंतरिक त्रिज्या 6400 किलोमीटर मानी जाती है। लेकिन आज से हजारों वर्ष पूर्व पृथ्वी की त्रिज्या 8862.7 किलोमीटर हो, यह संभव है । इसलिये मेरा सुझाव है कि जैनधर्म में जिसे भरत क्षेत्र कहा गया है वह वास्तव में हमारी पृथ्वी का द्योतक है अथवा एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पृथ्वी के साथ-साथ कुछ अन्य छोटे आकाशीय पिण्ड हों या पृथ्वी एवं कुछ रिक्त स्थान हो । इसे भरत क्षेत्र इसलिये कहा गया होगा कि पृथ्वी पर भारतवर्ष नाम का एक विशाल एवं प्रसिद्ध क्षेत्र है जिसमें हजारों वर्ष पूर्व अपनी सीमाओं का विस्तार आज से कहीं अधिक रहा होगा । भरत क्षेत्र पृथ्वी का द्योतक हो सकता है, इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिये मैं निम्न तर्क प्रस्तुत करना चाहता हूँ 36 (1) तिलोयपण्णति ( भाग 2, गाथा 2402) में भरत क्षेत्र का क्षेत्रफल 602, 1335.6 वर्गयोजन बताया गया है, वह भारत वर्ष का क्षेत्रफल हो ही नहीं सकता। (2) वैदिक धर्म में यह माना गया है कि काल का परिवर्तन केवल भरत क्षेत्र में ही संभव है। साथ ही विष्णु पुराण के अन्तिम अध्याय के उपसंहार में लिखा है कि भरत को छोड़कर शेष सभी भोग भूमियाँ हैं। इससे सिद्ध होता है कि भरत क्षेत्र ही पृथ्वी है जो कर्मभूमि है। जैनों में वर्णित अन्य कर्मभूमियाँ तथा भोगभूमियाँ अन्य ग्रहों के द्योतक हैं । (3) यदि वैज्ञानिक धारणा के अनुसार यह मान लिया जाए कि आज से करोड़ों वर्ष पूर्व एशिया, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण उत्तर अमेरिका मिलकर एक ही भूमि भाग बनाते थे तथा कालान्तर में जल आधिक्य के कारण जो महासमुद्र बने, उनसे अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया के भू भाग से पृथक् हो गये, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भरत क्षेत्र पृथ्वी को ही कहा जाता था । ( 4 ) गणितानुयोग ( आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद ) की प्रस्तावना में पं. हीरालाल शास्त्री लिखते हैं, 'भरत तथा अन्य कर्म भूमियों के मनुष्य तथा तिर्यंच अगले भव में नारकी, देव या सिद्ध बन सकते हैं।' यदि भरत से तात्पर्य केवल भारतवर्ष से होता तो 'सिद्ध' तो ठीक है लेकिन क्या 'नारकी और देव' भी केवल भारत वर्ष के ही जीव बनते ? (5 ) भरतक्षेत्र के बाद जो क्षुल्लक हिमवान पर्वत है वह 100 योजन ( = 1280 किलोमीटर) ऊँचा बताया गया है। भारत के (और पृथ्वी के भी) सबसे तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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