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अस्थ मासपेशिया मासीतंत्र
ग्रन्थितंत्र
लेश्यात
अध्यवसा कार्मण
थाना
आत्मवादी दर्शन के अनुसार केन्द्र में आत्मा है, उसकी परिधि में कार्मण शरीर के द्वारा निर्मित कषाय वलय-अध्यवसाय-तैजस शरीर - लेश्या-ग्रन्थितन्त्र - यहां तक भावनात्मक क्षेत्र है । जब अध्यवसाय स्थूल शरीर में उतरते हैं तो नाड़ी तन्त्र को प्रभावित कर मानसिक विकृति पैदा करते हैं । लेश्यातन्त्र जो पूर्ण संचित कर्मों का झरना है, 23 यह अपने निर्देश मांसपेशियों, अस्थितंत्र, मन, वाणी और शरीर इन तीनों क्रियातन्त्र को देता है। इस चक्र से तात्पर्य है कि कर्म एक विशेष प्रक्रिया से शरीर को प्रभावित कर रोग को उत्पन्न करते हैं ।
रोग के प्रकार
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005
भावात्मक
मानसिक वाचिक क्रियात्मक
मूलतः हेतुभेद के आधार पर ही रोगों के प्रकार निर्धारित होते हैं ।
त्रिदोषवैषम्य के आधार पर पित्तज, कफज और वायुजनित रोगों के तीन प्रकार सर्वविदित है । सुश्रुत संहिता में रोगों के चार प्रकार बताये गये हैं- आगन्तवः शारीराः मानसाः स्वाभाविकाश्चेति । 24 आगन्तुक शस्त्रादि के आघात से उत्पन्न । शारीरिक रोग अन्नपान, त्रिदोष और रक्त इनसे एवं सन्निपात रूप में विषमता से उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोग- क्रोध, भय, शोक हर्ष, दुःख, ईर्ष्या, असूया, दीनता, मात्सर्य, काम, लोभ आदि से तथा स्वाभाविक रोग-भूख, प्यास, वृद्धावस्था, मृत्यु, निद्रा आदि है ।
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महर्षिचरक ने रोग के तीन प्रकार माने हैं- निजागन्तुमानसाः । 25 आचार्य महाप्रज्ञ ने सभी प्रकार के रोगों को दो भागों में बांटा है-बाह्य उपाय साध्य रोग तथा आभ्यन्तर उपाय साध्य रोग।" आधुनिक संदर्भ में रोग के मुख्य तीन प्रकार बन सकते हैं - 1. शारीरिक 2. मानसिक 3. भावनात्मक रोग ।
आचार्य महाप्रज्ञ प्रणीत साहित्य में इन रोगों पर विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला गया है।
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