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भावनात्मक रोग-आवेग, संवेग, असहिष्णुता, क्रूरता आदि भाव आत्मा अथवा चेतना से जुड़े हुए हैं। हमारी भावनाएं भीतर से आती हैं। बाहर से उनका कोई संबंध नहीं रहता । भाव - जगत भीतर का जगत है । यह स्वास्थ्य के लिए कुंजी का काम करता है। मन के अच्छे अथवा बुरे कार्य के लिए उत्तरदायी है भाव। जैसा भाव वैसा मन । भाव मन को संचालित करता है। वर्तमान मेडिकल साइन्स की दृष्टि से भाव की उत्पत्ति का केन्द्र हैलिम्बिक-सिस्टम, हाइपोथेलेमस । मस्तिष्क का यह हिस्सा भाव संवेदना का स्थल हैहाइपोथेलेमस । अभिव्यक्ति का केन्द्र है नाभि । वह तैजस केन्द्र है, जहां वृत्तियां अभिव्यक्त होती हैं। मन भाव द्वारा संचालित एक तन्त्र है। भाव द्वारा सारी प्रवृत्तियां संचालित हो रही हैं । क्रोध, लोभ, माया, मान, ईर्ष्या, भय, घृणा, वासना, ये हमारी भावनाएं हैं। इनके संयम पर हमारा भावनात्मक स्वास्थ्य निर्भर है ।
चित्त का भावनात्मक स्वास्थ्य के साथ गहरा सम्बन्ध है । अन्तराय चित्त, मिथ्यात्व चित्त, मोहचित्त का सम्बन्ध हमारे स्वास्थ्य के साथ जुड़ता है । चित्त भाव को पैदा करता है भाव का प्रवाह भीतर से आता है। हमारे जितने भाव हैं, ये सारे चित्त के उत्पाद हैं। स्वास्थ्य
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दृष्टि से देखें तो अशुद्ध चित्त, अशुद्ध भाव और अशुद्ध मन है तो स्वास्थ्य खराब है। ये सब शुद्ध हैं तो स्वास्थ्य अच्छा है। मनोकायिक बीमारियां चित्त की अशुद्धि के कारण उपजती हैं। भाव की शुद्धि न होने पर शरीर खोखला होता चला जाएगा।
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बहुत बीमारियां जो न शरीर से, न मन से किन्तु भाव से उत्पन्न होती हैं। बड़ी बीमारियों का स्रोत है- राग व द्वेष युक्त भावनात्मक संवेग । जैसे तेज क्रोध का परिणाम होता है, तत्काल हार्ट अटैक हो जाएगा। यदि निषेधात्मक भाव रहते हैं तो कैंसर की संभावना हो जाएगी।
भाव की विकृति रोग को जन्म देती है । भय पैदा हुआ तो बीमारी पैदा हो जाएगी। उत्कंठा पैदा हुई तो बीमारी पैदा हो जाएगी। पदार्थ के प्रति उत्सुकता और अति लालसा भयंकर बीमारी पैदा करती है, जिससे थाइरॉक्सीन की क्रिया बदल जाती है । उदासी, का चिड़चिड़ापन, अवसाद, डिप्रेशन आदि-आदि बीमारियां पैदा हो जाती हैं।
स्वभाव
चिकित्सा
भगवान महावीर के सामने परम तत्त्व था आत्मा । उसे स्वस्थ रखने के लिए उन्होंने बहुत कहा और वह अध्यात्मशास्त्र बन गया । अध्यात्मशास्त्र का दूसरा नाम है स्वास्थ्य शास्त्र । आत्मा अरुज है । वह कभी रोग से आक्रान्त नहीं होती। जो स्वयं अरुज है उसका उपयोग रोग निवारण में संभव है । 28 अध्यात्म-चिकित्सा का मूल आधार है- आत्मा के अरुज स्वभाव का चिन्तन करना और तैजस केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करना ।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005
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