Book Title: Tulsi Prajna 2005 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ यह गान एक स्वर्णिम उषा के उदय का गान होगा और तब हम सृजन और शांति के सच्चे अभ्युदय को देख सकेंगे। यही गान और यही अभ्युदय आइंस्टीन के उद्गारों का अर्थ है और केवल आइंस्टीन ही क्यों? John Allston, Lord Byron और S. Grellet भी तो इसी अर्थ की परिक्रमा कर रहे हैं, उनके केवल नाम भिन्न हैं, शब्द भिन्न हैं। अर्थ का जितना महत्त्व है, अर्थच्छाया का भी उतना ही महत्त्व है। संलग्न अर्थ सर्वत्र निहित हैं और हर कथ्य के समानान्तर चलते हैं। उनका सिलसिला मूल अर्थ को और भी प्रकाशमान करता है। अतः अर्थ की बात जहाँ होती हो वहाँ पल भर के लिए रुक जाना निरर्थक नहीं जाता। यह छोटा-सा विश्राम नए अर्थ उद्घाटित करता है। यहाँ भी यह उद्घाटन, देखिए, हमें फिर प्रकृति के पास ले जा रहा है, जहाँ से हमने अपनी बात प्रारम्भ की थी। प्रकृति का हर उपादान कुछ अर्थ लिए है और उसकी सारी चर्याएं उन मूल्यों को परिभाषित करती हैं, जो शाश्वत हैं। मगर मनुष्य के मन की तरह प्रकृति में व्यक्त अर्थ भी अदृश्य रहते हैं। इन दोनों अदृश्य तत्वों का समन्वय चयन की यातना और द्वन्द्वों के कारागार से मुक्ति है। इन दोनों का समन्वय ज्ञेय, निवृत्ति और अक्षर का वरण है। इन दोनों का समन्वय दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिए प्रस्थान है। मन और प्रकृति- इन दोनों के समन्वय में सब अर्थ समाहित हैं। 15 नूरमल लोहिया लेन कोलकता 700 007 तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005 - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122