Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ जैन धर्म में सम्यग्ज्ञान : स्वरूप और महत्व - डॉ. फूलचन्द प्रेमी धर्म में सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यकदर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन तीनों को एकत्र रूप में मोक्ष मार्ग का साधन माना गया है, अत: इन तीनों की समानता मोक्ष प्राप्ति में साधक है । मोक्षमार्ग में इन सभी का समान महत्व है। इन तीनों में से प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य-विषय सम्यग्ज्ञान है। चैतन्य के प्रधान तीन रूप हैं-जानना, देखना और अनुभव करना। ज्ञान का इन सभी से सम्बन्ध है । सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान भी आत्मा का विशेष गुण है, जो 'स्व' एवं 'पर' दोनों को जानने में समर्थ है । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है जो जादि सो णाणं' अर्थात् जो जानता है वही ज्ञान है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने षटखण्डागम की धवला टीका में भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम्' अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष को ज्ञान कहा है। आचार्य पूज्यवाद ने 'जानाति ज्ञायते अनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानं' अर्थात् जो जानता है वह ज्ञान है। (कर्तृसाधन) जिसके द्वारा जाना जाये, वह ज्ञान है (करणसाधन)अथवा जानना मात्र ज्ञान है (भाव साधन)। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है- णाणस्स सारमायारो अर्थात् ज्ञान मनुष्य के लिये सारभूत है, क्योंकि ज्ञान ही हेयोपादेय को जानता है। सम्यग्दर्शनपूर्वक संयम सहित उत्तम ध्यान की साधना जब मोक्ष मार्ग के निमित्त की जाती है तब लक्ष्य की प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान के महत्व का परिज्ञान होता है। जैसे धनुषविद्या के अभ्यास से रहित पुरुष वाण के सही निशाने को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष ज्ञान की आराधना के बिना मोक्षमार्ग के स्वरूप को नहीं पा सकता, क्योंकि संयम रहित ज्ञान और ज्ञान रहित संयम अकृतार्थ है अर्थात् ये मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकते। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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