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मानव एवं परमसत्ता का यह शाश्वत सम्बन्ध आदिकाल से निरन्तर गतिशील रहा है। आदिकालीन मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक शक्तियों को देवत्व में आरोपित किया और इन प्राकृतिक शक्तियों में अनेक आत्माओं की परिकल्पना और इन आत्माओं के निवास हेतु एक लोक की कल्पना की जो परलोक कहलाया । यह विचारधारा संसार की समस्त जनजातियों, संस्कृतियों में समान रूप से विद्यमान थी इससे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मानव के चिन्तन में परमसत्ता की धारणा का मूल स्त्रोत आदिकालीन मानवीय चिन्तन ही है ।
आदिकाल का मानव परमसत्ता को प्रारम्भिक दौर में स्थूलकाय मानता था । स्थूल मानने के साथ-साथ उसे अदृश्य भी मानता था । यह परमसत्ता एक सूक्ष्य शरीर में निवास करती थी। यह सूक्ष्म शरीरधारी परम तत्त्व एक अदृश्य जगत में निवास करते थे । यह मानव के बौद्धिक चिन्तन की एक महान् उपलब्धि थी ।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मानव समुदाय में अतीन्द्रिय जगत् की परिकल्पना आदिम युगीन मानव मस्तिष्क की उपज है । यह अध्यात्म जगत की प्रथम नींव थी, जिस पर आज सम्पूर्ण विश्व का दर्शन जगत् खड़ा है। मानव का विशेष गुण " प्रज्ञाशीलता " उसे पशु जगत् से अलग स्थापित करता है । जिसका विकास मानव की उत्पत्ति से आज तक सतत् रूप से हो रहा है, विवेक पर ही केवल मानव प्रत्येक विषय पर चिन्तन कर सत्य को स्थापित करने का प्रयत्न करता है । इस जागृत प्रज्ञा के आधार पर मानव ने इहलोक के परे परलोक की परिकल्पना कर मानव मन की जिज्ञासा को परमसत्ता की प्राप्ति के लिए तीव्र कर दिया। आज सम्पूर्ण विश्व का आध्यात्मिक और दार्शनिक चिन्तन इस परमसत्ता के प्रत्यक्षीकरण के प्रयास में लगा हुआ, परमसत्ता के आस-पास घुमता सा नजर आता है ।
विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य एवं भारतीय जगत् के आधार स्तम्भ ऋग्वेद में प्रकृति एवं मानव का सम्बन्ध इहलोक एवं परलोक के सुन्दर समन्वय को प्रस्तुत करता है। प्रारम्भिक ऋग्वैदिक अवस्था में वैदिक संस्कृति की धार्मिक पद्धति के तहत बहुदेववाद का प्रचलन हुआ। इसमें अनेकानेक दिव्यशक्तियों को देवताओं के रूप में स्वीकार किया गया है । यह मानव के आदिम अवस्था के चिन्तन की धारणा ही थी परन्तु वैदिक परम्परा का उत्तरोत्तर विकास हुआ और इसमें बहुदेववाद के बाद एकाधिदेववाद और एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद के रूप में परमसत्ता का स्वरूप विकसित हुआ ।
ऋग्देव में जगत् की आरम्भिक अवस्था के वर्णन में कहा गया कि " उस समय
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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