Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ "प्रत्येक बालक से लेकर वृद्धों तक सब ताबिज धारण करते थे जिन पर भांति-भांति की आकृतियां एवं मंत्र खुदे हुए होते थे मानव की यह धारणा परमसत्ता या दिव्य पुरुष की सत्ता को स्वीकार करती है। इस प्रकार का चिन्तन विश्व की प्राचीनतम यहूदी संस्कृति में भी व्याप्त था। यहां भी आदिम अवस्था से ही बहुदेववाद एवं सर्वचेतनावाद (एनिमिष्टस) का प्रचलन था वृषभ भेड़ और नागपूजा, आदिमानव की पुरातन विचारधारा की ही द्योतक मानी जा सकती है। मिश्र की सभ्यता में परमसत्ता की धारणा आदिमयुग से ही विद्यमान थी। इस आदिम संस्कृति की चरम परिणति पिरामिड सभ्यता के रूप में हुई। यहां बौद्धिक चेतना के साथ परमसत्ता के स्वरूप का भी विकास हुआ। परमसत्ता के रूप में सूर्य देव की विचारधारा पिरामिड युग की महान् देन है जिसके मूल में आदिमानव का पारलौकिक चिन्तन ही था, जो इहलोक से परे परलोक की कल्पना करता था, इस सभ्यता में परलोकवाद का विकास हुआ। आगे चल कर यह मिश्री चिन्तन परलोकवाद का मूल आधार बन गया। भूमध्यसागर के उत्तरी भाग में ईजियन सभ्यता विकसित हुई। यहां परमसत्ता का चिन्तन भारतीय परम्परा के समान ही विकसित हआ। यहां पर मिश्रियों हित्तियों एवं परवर्ती युनानियों की भांति प्रारम्भिक अवस्था में प्राकृतिक शक्तियों एवं बहुदेववाद के रूप में परमसत्ता की पूजा अर्चना होती आई थी "मातृ देवी व प्रतीक वृषभ'' की उपासना होने लगी, परम सत्ता के चिन्तन का विकास हुआ और बड़े देवालयों में परमसत्ता की आराधना होने लगी। यहां भी इस सम्पूर्ण चिन्तन की पृष्ठभूमि में आदिमानव का परलौकिक चिन्तन सर्वव्यापी था। इसी प्रकार इरानी सभ्यता का स्वरूप काफी कुछ ऋग्वैदिक परम्परानुसार ही था पर यहां मानव प्रारम्भिक अवस्था देव के साथ-साथ असुरों की उपासना भी करता था। यह प्रक्रिया परम्परागत परमसत्ता के चिन्तन का ही अंश थी। सुदूर पूर्व में विकसित होने वाली चीन की सभ्यता में भी सर्वचेतनावादी बहुदेववादी रूप में परमसत्ता का चिन्तन मौजूद था। वहां प्राकृतिक शक्तियों के साथसाथ भौतिक पदार्थों में देवत्व का आरोपण कर इस परमसत्ता की अवधारणा को स्वीकारा गया था। नगरीय संस्कृति के रूप में विकसित सिन्धूघाटी सभ्यता में प्राकृतिक शक्तियों को परमसत्ता के रूप में स्वीकारा गया था। बहदेववादी विचारधारा में "मात देवी आद्यशिव एवं लिंगोपासना'' सिन्धु सभ्यता की पशुपति की उपासना पर मार्शल ने कहा "शाक्तों ने आसुरी शक्ति के निवारण हेतु उसकी शरण ली थी अर्थात् यह सत्य है कि इससे शक्तियों के तांत्रिक कवच का जन्म हुआ।'' जो कुछ भी हो, पर इससे यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि यहां भी आदिमानव की मूल अवधारणा भी अन्य सभ्यताओं से भिन्न नहीं थी। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - - 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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