Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ फलं ददाति चेत्सर्वं तत्तेनेह प्रचोदितम् । अफले पूर्वदोषः स्यात् सफले भक्तिमात्रता॥ आदिसर्गेऽपि नो हेतुः कृतकृत्यस्य विद्यते। प्रतिज्ञातविरोधित्वात् स्वभावोऽप्यप्रमाणकः॥ अन्त में आचार्य हरिभद्र ने ईश्वरकर्तृत्व के संबंध मे अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से संपन्न वीतरागता पुरुष रूपी परमात्मा को ही ईश्वर माना है। उनका मत है कि ऐसे परमात्मा द्वारा दिखाये गए सम्यक् मार्ग का अनुसरण ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है। परमात्मा को मोक्ष प्रदान का प्रदाता या प्रेरक भी कहा जा सकता है। यह जीवात्मा ही अपने शुद्ध बुद्ध रूप में परमात्मा है और स्वरूप को वह स्वयं ही अपने कर्मों का क्षय कर प्राप्त करता है, उसका कर्ता भी वह स्वयं ही है। ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद गुणभावतः॥1 इस प्रकार हरिभद्र ने ईश्वर सम्बन्धी चिंतन में मुख्य रूप से निर्विकारत्व, वीतरागता और सर्वज्ञत्व को ही महत्व दिया है। तात्विक दृष्टि से शद्ध होने के कारण जीव ही परमात्मा का अंश है और अपने अच्छे-बुरे कर्मों का कर्ता भी है। इस दृष्टि से देखा जाये तो जीव ईश्वर है और वही कर्ता भी है। ईश्वरकर्तृत्ववाद को एक अलग अर्थ में स्वीकार कर हरिभद्र ने जैन दर्शन के साथ इसका तादात्म्य ही स्थापित किया है। संदर्भ 1. लोकतत्वनिर्णय, श्लोक 38 7. शास्त्रवार्तासमुच्चय, 2. हरिभद्र का अवदान, दिव्य ट्रस्ट मुंबई , अहमदाबाद, सागरमल जैन पृ. 2-3 हिन्दी व्याख्याकार 3. वही, पृष्ठ 4 पं. बदरीनाथ शुक्ल स्तबक 3, श्लोक 4 4. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, 8. वही श्लोक 5 सुखलाल संघवी पृष्ठ 53 9. वही श्लोक 6 5. आचार्य हरिभद्र की दार्शनिक दृष्टि, 10. वही श्लोक 7-8 शोध प्रबंध, संगीता झा पृष्ठ 134 11. वही श्लोक 11 6. पातंजल योगसूत्र, अध्याय 1, समाधिपाद सूत्र, 24 द्वारा वृजपाल चौहान ए-19, समसपुर पाण्डवनगर दिल्ली - 110 091 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - - 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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