Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 63
________________ खेलता है तो उसे कष्ट के प्रति द्वेष भाव होगा। इस प्रकार उसकी वीतरागता नष्ट हो जायेगी। वस्तुत: जीवों को विभिन्न कर्मों में प्रवृत्त करने में वीतराग ईश्वर प्रेरक नहीं हो सकता। जीव स्वयं ही अपने -अपने कर्म संस्कारों के अनुसार स्वेच्छा से सत् या असत् कर्मों में प्रेरित होता है। स्वयमेव प्रवर्तन्ते सत्त्वाश्चेश्चित्रकर्मणि। निरर्थकमिहेशस्य कर्तृत्वं गीयते कथम्॥ ग्रंथकार के अनुसार सत्व -रजस् - तमस से युक्त पुरुष की त्रिगुणात्मिका बुद्धि स्वभाव से ही प्रवृत्तिशील होती है, अतः उसके प्रवर्तन के लिए प्रयोजन ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है और यदि है तो वह बुद्धि को स्वयं ही सम्पन्न हो सकता है, अतः उसके लिए ईश्वर को सिद्ध करने का प्रयास ठीक उसी प्रकार से निर्रथक है जैसे घर में ही धन की प्राप्ति संभव रहने पर धन कमाने के लिए विदेश की यात्रा करना निर्रथक है । हरिभद्र योग दर्शन कर्म को ईश्वराधीन मानने की व्यवस्था को नकारते हुए कहते हैं कि ईश्वर की प्रेरणा से सभी कर्म फलप्रद होते हैं, क्योंकि अचेतन कर्मों में अपना कर्म फल देने का सामर्थ्य नहीं होता। चेतन के संयोग से ही अचेतन में कार्य क्षमता उत्पन्न होती है। इस प्रकार कर्मों को फलप्रद होने के लिए ईश्वर की प्रेरणा आवश्यक है। जैन दार्शनिक मानते हैं कि कर्म अचेतन होते हुए भी शुभाशुभ फल प्रदान करने की शक्ति रखते हैं । जिस प्रकार अचेतन औषधि अथवा विष खाने के बाद अपना फल प्रदान करते हैं, उसी प्रकार जड़ कर्म भी अपना फल देने का सामर्थ्य रखते हैं। यदि कर्म स्वयं विभिन्न फलों को प्रदान करने में सक्षम न हो तो ईश्वर का अस्तित्व मानने पर भी उन कर्मों से स्वर्ग -नरक आदि फलों की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। जीवों को अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है और कर्म स्वयं ही शुभाशुभ फल प्रदान करने की क्षमता रखते हैं, अतः हरिभद्र की दृष्टि में ईश्वरकर्तृत्व मानने का कोई औचित्य नहीं है, कर्मों के फल प्रदान करने में सहयोगी रूप में ईश्व की कल्पना तो केवल भक्ति की भावना का प्रदर्शन मात्र है। यदि यह माना जाए कि ईश्वर पर आश्रित न रहते हुए कर्म में स्वयं ही फल प्रदान करने की शक्ति है तो ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कई बाधाएं होती हैं, क्योंकि ईश्वर को कर्ता मानने पर उसकी वीतरागता खंडित होती है। ईश्वर प्रथम सृष्टि का कर्ता भी नहीं हो सकता , क्योंकि वह वीतराग कृतकार्य है। उसके लिए कोई कार्य करना शेष नहीं है। अतः न तो कोई सृष्टि प्रथम है और न ही स्रष्टा बल्कि सृष्टि का प्रवाह अनादि है 58 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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