Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त, स्पनोजा एवं लाइबत्जि बुद्धिवादी परम्परा के पोषक हैं परन्तु जहां मानव की बुद्धि गौण हो जाती है वहां परमसत्ता का सहारा लेकर चिन्तन को विराम देते है लॉक बर्कले और ह्यूम अनुभववादी दार्शनिक माने जाते हैं परन्तु जहां सारे अनुभव गौण हो जाते हैं वहां अनुभवातीत परमसत्ता मानकर अपने चिन्तन को विराम देते हैं । परमतत्व के संधान से संबंधित अनुभववाद एवं बुद्धिवादी चिन्तधाराओं का संघर्ष पाश्चात्य दर्शन में विख्यात है । इम्युनलकाण्ट इनमें समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं और शुभ संकल्प का विचार दर्शन जगत् को प्रदान करते हैं। इनका मानना है कि शुभसंकल्पानुसार कार्य करने वाले व्यक्ति को आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए । अतः कोई ऐसी सत्ता होना आवश्यक है, जो आनन्द प्रदान करती हो और वह परमसत्ता ही हो सकती है। इस सृष्टि में परमसत्ता को स्वीकार करना अति आवश्यक हो जाता है । सम्प्रति मानव अपने चरम बौद्धिक विकास के काल में भी परम तत्त्व या परम सत्ता के परम्परागत चिन्तन से मुक्त नहीं हो पाया है। भारतीय दर्शन एवं आधुनिक भारतीय दर्शन यूनानी दर्शन आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में परम सत्ता की अवधारणों को लेकर एक सामान्य दृष्टिपात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार सृष्टिसृजन की प्रारम्भिक अवस्था में जनजातियों, संस्कृतियों में परमसत्ता का विचार सार्वभौमिक था, उसी भांति सभी दर्शनों के मूल में एक ही मौलिक चिन्तन सामने आता है। आदिम युगीन मानव बौद्धिक विकास की दृष्टि से बहुत ही निम्नस्तर पर था। जनजातियों में देवत्व की भावना का जन्म हुआ। प्राकृतिक शक्तियों में आत्मा की भी परिकल्पना की गई परन्तु इसके गुणस्वरूप पर उसका चिंतन नहीं हुआ । शुभ और अशुभ आत्मा से आगे उसका चिन्तन नहीं बढ़ा। इस कारण आधुनिक आत्मत्व एवं परमसत्ता की तत्वमीमांसीय अवधारणा है, जो आदिमानव नहीं कर सका परन्तु इस परमसत्ता की मूल अवधारणा से आज का अतिमानसिक चिन्तन भी अपने आपको बचा नहीं पाया । परमसत्ता की अवधारणा मानव में उतनी ही प्राचीन है जितनी कि यह मानव जाति और उतनी ही नवीन है जितना कि एक नवजात शिशु । मानव एवं परमसत्ता का सम्बन्ध आज भी सार्वभौमिक एवं शाश्वत है । सन्दर्भ - 1. 2. 3. 52 विश्व की प्राचीन सभ्यता ( लेखक - श्रीराम गोयल) विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ. सं. 53 वही - पृ. सं. 55 वही - पृ. सं. 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 127 www.jainelibrary.org

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