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पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषुः । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यं परिग्रह ॥
यहाँ हरिभद्र की उपरोक्त स्थापना के समर्थन में मैं प्रो. सागरमल जैन को उद्धृत करना प्रासंगिक समझता हूँ। जैन परंपरा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं धर्मोपदेश के प्रस्तुतिकरण का प्रथम प्रयास ऋषिभाषित में परिलक्षित होता हैं। निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य मतों के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परंपरा के प्राचीन साहित्य में भी हमें नहीं मिलता। स्वयं जैन परंपरा में भी यह उदारदृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। सूत्रकृतांग जैसे ग्रंथ में हमें अन्य दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं के विवरण तो मिलते हैं किन्तु मिथ्या अनार्य या असंगत कह कर उसकी आलोचना की गई है। भगवती में विशेषरूप से मंखलिपुत्र गोशालक के प्रसंग में तो जैन परंपरा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर देती है। ऋषिभाषित ने जिस मंखलिपुत्र गोशालक को अर्हत ऋषि के रूप में संबोधित किया था, भगवती उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत करता है। बाद में लगभग आठवीं शताब्दी में हरिभद्र ने उसी प्राचीन परंपरा को पुनः अपनी कृतियों के माध्यम से स्थापित किया है। प्रो. जैन के अनुसार इस मामले में केवल जैन दर्शन ही नहीं अपितु भारतीय दर्शन में भी हरिभद्र का वैशिष्ट्य है। उन्होंने धार्मिक उदारता और समन्वय की जिस ऊंचाई को स्पर्श किया है, उतना 2500 वर्षों में न केवल जैन धर्म के इतिहास में अपितु समस्त भारतीय दर्शन के इतिहास में किसी ने नहीं किया । अन्य दार्शनिकों के कुछ वचनांश भले ही उदारता का परिचय देते हों लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो हरिभद्र के समान उदारदृष्टि रखता हो। पंडित सुखलाल संघवी के अनुसार जब कोई विद्वान् अपने खंडनीय परंपराओं के आचार्यों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करे तो इससे उसकी आन्तरिक भूमिका कितनी सत्यनिष्ठ और तटस्थ है, ज्ञात हो जाती है। इसी भूमिका का नाम समता या निष्पक्षता है। जब मानसिक प्रौढ़ता और सहमति होती है तो प्रतिपक्ष का निराकरण करने के बाद भी उसके मत में रहे हुए सत्यांश की खोज करने का प्रयत्न होता है। साथ ही उससे जो कुछ भी ग्राह्य प्रतीत होता है उसे वह अपने ढंग से उपस्थित करता है । इस प्रकार की प्रौढ़ता हरिभद्र के ग्रंथों में उपलब्ध होती है।
___ शास्त्रवार्तासमुच्चय में दार्शनिक विवेचन दर्शनों के अनुसार न कर मान्यताओं के अनुसार किया गया है। ग्रंथ के कुल 11 स्तबकों में से तीसरे स्तबक में न्याय दर्शन के ईश्वरवाद की समीक्षा की गई है। इस दार्शनिक मत के समर्थक ग्रंथों के प्राचीनतम स्थान न्याय वैशेषिक का है तथा इसके प्रतिवाद में अनेक परंपराएं हैं। लेकिन हरिभ्रद और अन्य परंपराओं में अन्तर यह है कि हरिभद्र जहाँ समन्वयवादी, निष्पक्ष समीक्षा तथा
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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