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शास्त्रवार्तासमुच्चय में ईश्वरकर्तृत्ववाद
- डॉ. अतुलकुमार प्रसाद सिंह
शास्त्रवार्तासमुच्चय जैन दर्शन के समन्वयवादी आचार्य हरिभद्र की विलक्षण दार्शनिक कृति है । इसके माध्यम से आचार्य हरिभद्र ने अपना परिचय उदारवादी समालोचक के रूप में दिया है। हरिभद्र ने इससे पहले भी अनेक ग्रंथों की रचना की, जिसकी संख्या 1440 मानी जाती है। लेकिन वर्तमान में इनमें से कुछ को छोड़ शेष विलुप्तप्राय ही हैं। भारतीय दर्शन का परिचय मात्र 87 श्लोकों में दे दिया है। इसमें प्रतिपाद्य दार्शनिक मत हैं- बौद्ध, न्याय, सांख्य, जैन, वैशेषिक और मीमांसा ।
बाद में इन दार्शनिक शाखाओं की विस्तृत विवेचना और उनके एक दूसरे के साथ आपसी संबंधों को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से हरिभद्र ने शास्त्रवार्तासमुच्चय की रचना की। इसमें कुल 700 छन्द हैं। यह 11 स्तबकों में विभक्त है। इस ग्रंथ में जिन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा की गई है, उनमें प्रमुख हैं- भौतिकवाद, कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद, ईश्वरवाद, प्रकृति - पुरुषवाद, क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद, बह्माद्वैतवाद, सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद और शब्दार्थसंबंधप्रतिषेधवाद । समीक्षा के क्रम में हरिभद्र ने अपने दृष्टिकोणों से इस बात की मीमांसा की है कि ये किस तरह से सत्य है और इसका औचित्य क्या है ? इस प्रस्तुत शोध लेख में हम शास्त्रवार्तासमुच्चय में प्रतिपादित न्याय दर्शन के ईश्वरवाद और जैन दर्शन व हरिभद्र की दृष्टि से उसकी समन्वयवादिता पर विचार करेंगे। इससे पूर्व जानकारी देना अनुचित नहीं होगा कि प्रस्तुत ग्रंथ में आचार्य ने जिस निष्पक्ष, उदार, समन्यववादी और क्रान्तिकारी शैली का परिचय दिया है, उससे उन्होंने अपनी इस युक्ति को ही सार्थक बनाया है कि -
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तुलसी प्रज्ञा अंक 127
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