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में आज भी आदिमानव की वो ही विचारधारा कार्यरत थी कि इस सृष्टि के परे भी कोई सत्ता है जो इस संसार का संचालन कर रही है।
___माइलेशियन मत ग्रीक का प्रचीनतम दर्शन है। थैलीज, एनेकिजमेण्डर, एनेकिजमनीज इस परम्परा के दार्शनिक थे। थेलीज ने सृष्टि का मूल जल को माना, वहीं एनेकिजमेण्डर ने अपनी रचना "प्रकृति पर निबन्ध" में थेलीज का खण्डन भौतिक द्रव्य में परम तत्व को नहीं मानकर किया और परमसत्ता को असीम (Apeiron or the Boundless) कह कर किया कि यहाँ नित्य, स्वयंभू, अविनाशी और अपरिणामी है।" इसके पश्चात् अस्तित्व में आने वाले पाइथागोरियन मत में माइलेशियन मत की परमसत्ता को स्वरूप प्रदान किया गया यहां पर पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता के साथ-साथ कर्मवाद को भी स्वीकारा गया। अतीन्द्रिय जगत् को पाश्चात्य दर्शन में स्थापित करने वाला पाइथागोरियन ही था। वहीं बुद्ध के समकालीन उत्पन्न होने वाले हेरेक्लाइटस ने अग्नि को परमसत्ता माना। वहीं जैनोपनीज ने शंकर के ब्रह्म की भांति परमतत्व को निराकार, नित्य और अपरिणामी माना था। पाश्चात्य जगत् के महान् चिन्तन पार्मोनाइडीज ने कूटस्थ सत्य के साथ स्वर्ग की परिकल्पना कर मानव के प्रारिम्भक चिन्तन को जीवित रखा।
मेलिसस नामक पाश्चात्य विद्धान ने तो सत्ताशून्य आकाश का खण्डन कर सत् को अनन्तरूप में प्रतिष्ठित किया और यह तभी होगा जब सत्, विज्ञान रूप में होगा न कि भौतिक। समय के साथ बुद्धि एवं दर्शन दोनों का विकास हुआ। इस कारण परमसत्ता के स्वरूप का भी विकास हुआ। जहां ग्रीकदर्शन की प्रारम्भिक विचार धारा में ब्राह्य प्रकृति का चिन्तन दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि अब भी आदिमानव का मौलिक चिन्तन समाज में व्याप्त था। साइक्रेटीज, अरस्तु एवं प्लेटों पाश्चात्य दर्शन के आधार स्तम्भ माने गये हैं परन्तु साइक्रेटीज सबसे बड़ा रहस्यवादी था जिसने अपने चिन्तन में अलौकिक परमसत्ता का उल्लेख किया। इसी प्रकार महान् चिन्तन प्लेटो भी प्रत्ययों की सत्ता द्वित्य जगत् की स्थापना अपने दर्शन के माध्यम से करता है। महान् दार्शनिक अरस्तू ने भी इन विज्ञानों की सत्ता को स्वीकार किया। "आधुनिक पाश्चात्य दर्शन परम्परा" का उत्तरोत्तर विकास होता गया। नवीन चिन्तनधारा का प्रवाह इस परम्परा में हुआ, जिसमें बुद्धिवादी स्वीकार कर, अनुभववादी और नीतिशास्त्रपरक दर्शन सामने आये। यहां दर्शन की दिशाएं बदलने लगी थी, परन्तु परमसत्ता का यह प्रश्न आज भी इन नवीन विचारधारा में अपने मूलस्वरूप में उपस्थित हैं।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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