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मानवीय चिन्तन में परमसत्ता
- सूरजमल राव
यह चराचर जगत् विचित्रताओं का समष्टि स्वरूप है। सम्पूर्ण जगत् एक अनसुलझा सा रहस्य प्रतीत होता है। आदि से अर्वाचीन काल तक मानव मस्तिष्क इस रहस्य से पर्दा उठाने का प्रयास कर रहा है। जैसे-जैसे प्रयास की गति तेज होती जाती है, रहस्यमय जगत् का रहस्य भी बढ़ता ही जाता है। इस आधुनिक प्राणीशास्त्र के गहन अनुसंधान से इस रहस्यमय मानव की कुण्डली खुलने लगी है।
इस संसार में अनन्त काल से मानव एवं मूक प्रकृति के समस्त क्रिया-कलाप एक रहस्यमय ढंग से निरन्तर गतिशील है। सम्पूर्ण सौरमण्डल एक विस्तृत रहस्य है। जिसके प्रत्येक भाग व परत-दर-परत रहस्यों का एक मकड़ीजाल-सा दिखाई देता है। इक्कीसवीं सदी का अतिविकसित मानव एवं मानव निर्मित तकनीक भी इस रहस्य से पर्दा उठाने में असक्षम सी प्रतीत हो रही है। इन सबके साथ-साथ सदियों से मानव मन को उद्धेलित करने वाली एक विचारधारा मानव समुदाय में निरन्तर प्रवाहमान है वो है मानव मन की अलौकिक आस्था या परमतत्त्व या परमसत्ता में विश्वास।
पाषाण काल से इस प्लेटेनियम युग तक मानव इस परलौकिक अवधारणा के द्वन्द्व में फंसा हुआ है। सैकड़ों अनुसंधान एवं तर्क-वितर्क के बाद आज भी यह विचारधारा अपने आदिम स्वरूप में ही मानव समुदाय में विद्यमान है। सम्प्रति परमसत्ता का प्रश्न एक यक्षप्रश्न बनकर मानवीय चिन्तन को प्रभावित कर रहा है। मानव इस सजीव सृष्टि का एक प्राणी मात्र है। प्राणीजगत के समस्त प्राणियों के साथ मानव का उद्भव हुआ जिसके समस्त क्रिया-कलाप पशुओं की भांति सम्पादित होते थे फिर भी इस अवस्था में
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005
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