________________
मानव मन मस्तिष्क में परमसत्ता का या दिव्य जगत् की परिकल्पना का उद्भव कैसे हुआ? मानव इस लोक में रहते हुए परलोक की कामना क्यों करने लगा ? विश्व के प्राचीन इतिहास का अध्ययन किया जाये तो यह विचारधारा उतनी ही प्राचीन दृष्टिगोचर होती है जितनी की मानव जाति ।
विश्व की प्राचीन सभ्यताओं पर विहंगम दृष्टि डालें तो परमसत्ता का एक विस्तृत स्वरूप उभरकर समाने आता है। मध्य एशिया से लेकर सुदूर अफ्रीका और कोलम्बिया से लेकर चीन तक यह चिन्तन सार्वभौमिक स्वरूप में विद्यमान लगता है। विश्व की प्राचीनतम सुमेरियन सभ्यता में देव समूह की परिकल्पना की गई है। यहां के निवासी अपनी आदिम अवस्था से ही दिव्य शक्तियों में विश्वास करते आये हैं उनका मानना था कि “इस जगत् में ऐसा कोई अंश नहीं है जहां किसी देवता का वास नहीं हो । "
44
सुमेरियन सभ्यता में प्रचलित अनेकों आख्यानों से परमसत्ता का विश्वास पुष्ट होता है । 'एनलीन एवं निनलिनल नामक आख्यान में एनलील के पुत्र प्राप्ति पर उसे चन्द्रमा से ( पुत्र के) प्रकाश प्राप्त होता है । इस सुमेरियन सभ्यता में बहुदेववाद की अवधारणा व्याप्त थी जहां शुभ-अशुभ के रूप में देवताओं का अभी विभाजन नहीं हुआ था। सुमेरियन सभ्यता में पनपने वाले इस विचार के मूल में आदि मानव का पारलौकिक चिन्तन ही कार्यरत था । इस प्रकार एक ठोस तथ्य उभरकर सामने आता है कि जब से मनुष्य को प्राणी जगत् में अपने अलग अस्तित्व का बोध हुआ तब से मानव मन एक परमसत्ता का चिन्तन करने लगा ।
(1) मनुष्य के बौद्धिक विकास के साथ-साथ इस परमसत्ता के स्वरूप में भी बदलाव आने लगा परन्तु बदलती हुई मानसिकता यह भी मानव को आदिम चिन्तन से मुक्त नहीं करा पाई एशिया माईनर के पास विकसित होने वाली अनालोलिया की सभ्यता के मानवीय चिन्तन में भी इस परमतत्त्व की विचारधारा को स्पष्ट देखा जा सकता है। इस हित्ती सभ्यता में मानव प्रारम्भिक अवस्था में पशुओं के साथ प्राकृतिक शक्तियों पेड़-पौधे, नदी - पर्वतों की आराधना दिव्यशक्तियों के रूप में करने लगा जहां
'ऋतुदेव लोकप्रिय देव था वहीं अरिन्नानगर की सूर्य देवी" की आराधना की पृष्ठभूमि में परमतत्त्व की परम्परागत चिन्तनधारा अपने मूल रूप में मौजूद थी इसी प्रकार मध्य एशिया की असीरियन सभ्यता में देव और परलोक की व्याख्या हुई है, इस सभ्यता में मानव अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए बड़ा ही सजग लग रहा है। जहां
44
44
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा अंक 127
www.jainelibrary.org