Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 51
________________ सभ्यताओं के इस बृहद् अध्ययन से यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि विश्व के विभिन्न भागों में विकसित होने वाली इन महान् सभ्यताओं में परमसत्ता या दिव्यशक्तियों के स्वरूप एवं आराधना पद्धतियों में देश-काल परस्थितियों के अनुसार कुछ भिन्नता जरूर हो सकती है परन्तु इनके समस्त अनुयायियों के हृदय के मूल प्रयोजन में कोई भिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती है। ___ ये समस्त सभ्यताएं इस भूमण्डल पर मानव विकास की आदिम अवस्था थी, यहां मानव का विकास धीरे-धीरे हो रहा था। अभी आदिमानव एवं सभ्यता के प्रथम चरण के मानव में काफी समानता थी। इस समय तक मानव में बौद्धिक विकास का पूर्णतः अभाव ही था पर परमसत्ता की मूलधारणा सभ्यता के प्रथम चरण से ही मानव मस्तिष्क में उपस्थित थी, जिसकी जड़ें सुदूर अतीत में अवस्थित थी। मानव प्रज्ञा के इस शैशवकाल में परमसत्ता की अवधारणा का मूल्यांकन करते हुए आधुनिकतम युग बौद्धिक मानव में माना है कि परमसत्ता में इस धारणा की पृष्ठभूमि में आदिमानव की भौतिक आवश्यकता ही थी। परमसत्ता की धारणाओं को लेकर बौद्धिक मानव का मानना हैं कि सृष्टि के सृजनकाल में मानव नितान्त असहाय था, भयाक्रान्त था और अभी सक्षमता का अभाव था। इस अवस्था में उसने अपने भैतिक सुख समृद्धि हेतु परमसत्ता की परिकल्पना की, परन्तु भय को इस परमसत्ता की उत्पत्ति का एकमात्र कारण मानना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। भय के अतिरिक्त मनुष्य की कुछ अन्य भावना भी इस परमसत्ता के उत्थान में सहायक हो सकती है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य भयभीत तभी होता है, जब मनुष्य को अपनी प्रिय या मूल्यवान वस्तु के नष्ट होने की आशंका होती है। आदिकाल से ही मानव मूल्यवान पदार्थों की रक्षा एवं वृद्धि की कामना करता आया है। यह प्रस्तुत आकांक्षा भी मानव को परमसत्ता के बारे में चिन्तन करने को बाध्य कर सकती है। कोई भी कारण रहा हो पर यहां मुख्य बात यह है कि विश्व के विभिन्न भागों में विकसित होने वाली प्रजातियां जिनकी शारीरिक संरचना भिन्न-भिन्न थी, इस समय भौतिक आवश्यकता एवं बौद्धिक चिन्तन की अवस्था भी भिन्न-भिन्न थी, परन्तु फिर भी सभी मनुष्यों के मन मस्तिष्क में परमसत्ता की एक सार्वभौमिक अवधारणा का पाया जाना ही इस सार्वभौतिक परमसत्ता की सत्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है, जो मानवीय चिन्तन को सतत् रूप से प्रभावित करता रहा है। 46 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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