Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 25
________________ द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को मर्यादा से जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधि ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। 4 मनः पर्यय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन की अवस्थाओं (पर्यायों)का ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान है । सामान्य रूप में यह दूसरे के मन की बात को जानने वाला ज्ञान होता है। वस्तुतः चिन्तक जैसा सोचता है उसके अनुरूप पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ पर्याय बन जाती हैं और इनके जानने का कार्य मनः पर्यय करता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम मतिज्ञान द्वारा दूसरे के मानस को ग्रहण करता है , इसके बाद मनः पर्यय ज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होती है । अवधि और मनः पर्यय :- ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते हैं। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक नहीं है। यह दोनों रूपी द्रव्य के ज्ञान तक ही सीमित हैं, अतः इन्हें अपूर्ण प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का जितना सूक्ष्म अंश जाना जाता है उससे अनन्त गुणा सूक्ष्म अंश मनः पर्यय के द्वारा जाना जाता है अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है किन्तु मनः पर्यय ज्ञान मनुष्यगति में, वह भी संयत जीवों को ही होता है। इस पंचम काल में अवधिज्ञान का होना तो यहाँ सम्भव भी है, किन्तु मन: पर्यय ज्ञान का होना दुर्लभ है। अवधि और मनः पर्यय की मोक्ष मार्ग में अनिवार्यता नहीं है, जबकि मति और श्रुतज्ञान अनिवार्य है। 5. केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत जानने वाला केवलज्ञान है। इसमें लोक-आलोक समस्त रूप में प्रतिबिम्बत होते हैं। वस्तुतः आत्मा-ज्ञान स्वभाव है, अतः आत्मा समस्त आवरणों के समाप्त हो जाने पर अपने स्वभाव रूप हो जाता है और समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ जानने लगता है। 'केवल' शब्द असहायवाची है। इसलिए जो इन्द्रिय और आलोक आदि किसी की अपेक्षा नहीं रखता है, वह केवलज्ञान है। इसके होने पर आत्मा परमात्मा रूप बनकर सर्वज्ञ हो जाता है। यह तो वह दिव्य ज्ञान है जिसमें नष्ट और अनुत्पन्न पर्याय भी प्रतिबिम्बित होती है, क्योंकि यह केवल ज्ञान ऐसे ही उत्पन्न नहीं होता अपितु तत्त्वार्थसूत्र (90/9) के अनुसार "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्" अर्थात् मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म का क्षय होने पर केवल ज्ञान प्रकट होता है। वस्तुतः इन चार प्रतिबन्धक कर्मों में से पहले मोक्ष का क्षय होता है और फिर 20 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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