Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ त्रिगुण : हेय या उपादेय पुरुष गुणातीत है। अतः गुणातीत अवस्था ही पुरुष का स्वभाव है। किन्तु प्रकृति की संयोग अवस्था में सत्त्वगुणात्मक अवस्था श्रेष्ठ, रजोगुणात्मक अवस्था मध्यम एवं तमोगुणात्मक अवस्था निकृष्ट कहलाती है। क्रमशः ये तीनों ही हेय-छोड़ने योग्य हैं। सर्वप्रथम तमोगुण फिर रजोगुण एवं अन्त में सत्त्वगुण का त्याग कर स्वरूप में अवस्थान होना ही सांख्य के अनुसार मोक्ष है। आन्तरिक एवं बाह्य जगत प्रसन्नता, करुणा, प्रेम, मैत्री, सुख आदि जितने भी विधेयात्मक भाव हैं वे सारे सत्त्वगुण से निष्पन्न है। दुःख, क्रोध, काम, लोभ आदि निषेधात्मक भाव रजोगुण से निष्पन्न हैं। प्रमाद, आलस्य, अज्ञान, निद्रा आदि तमोगुण के कारण आविर्भूत होते हैं। बुद्धि, अहंकार, मन, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। पाँच कर्मेन्द्रियों तक का विकास आन्तरिक जगत का विकास कहा जा सकता है। पाँच तन्मात्राओं से उत्पन्न पंचभूतों से बाह्य जगत् की उत्पत्ति होती है। शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राओं को सांख्यकारिका एवं अविशेष कहा गया है, क्योंकि सूक्ष्म होने के कारण उपभोग योग्य शान्तत्व, घोरत्व एवं मूढत्व विशेषताएँ इनमें नहीं हैं। पंचभूतों को विशेष कहा गया, क्योंकि इनमें शान्त, घोर एवं मूढ़ नामक विशेषताएँ स्पष्ट परिलक्षित हैं। शान्त सुखप्रद होते हैं, घोर दुःखप्रद होते हैं तथा मूढ़ मोहदायक होते हैं। शान्त सत्त्वगुण प्रधान, घोर रजोगुण प्रधान एवं मूढ़ तमोगुण प्रधान है। आकाश आदि स्थूल भूतों में कुछ सत्त्वगुण प्रधान होने से शान्त, प्रकाशक एवं लघु हैं, रजोगुण की प्रधानता से घोर एवं चंचल हैं तथा तमोगुण की प्रधानता से मोहकारक है। जैसे भीड़ भरे घर से निकले हुए पुरुष के लिए खुला आकाश सुख हेतु होने से शान्त है, वहीं आकाश सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि से पीड़ित व्यक्ति के लिए दुःख का हेतु होने से घोर है तथा मार्ग पर चलते हुए वन में मार्ग से भटके हुए व्यक्ति के लिए जो मार्ग को नहीं जानता है उसके लिए दिशा मोह का जनक होने से मूढ़ है। इसी प्रकार व्यक्ति भेद, परिस्थिति भेद से सभी भूत, शान्त, घोर एवं मूढ़ कहलाते हैं।” महत् और चित्त सांख्य दर्शन जिसे 'महत्' कहता है, योग उसे ही चित्त कहता है। प्रकृति से सर्वप्रथम इसकी उत्पत्ति हुई। यह चित्त तीनों गुणों के अधीन है और तद्-तद् गुण के 38 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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