Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 45
________________ त्रयीविद्या एवं त्रिगुण इस दृश्यमान जगत में तीन वस्तुएँ हमें परलिक्षित होती हैं - ज्ञान, क्रिया और अर्थ। इसके अतिरिक्त और कोई विश्व नहीं है। ज्ञान, क्रिया और अर्थ क्रमशः सत्त्व, रज एवं तमोगुण के प्रतीक हैं। संसार अनेक त्रिकों से युक्त है। इन त्रिकों के ये तीन गुण ही आधार हैं। वेद विज्ञान में अव्यय पुरुष की पाँच कलाएँ मानी गयी हैं - आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण एवं वाक्। इन पाँच कलाओं में मन, प्राण एवं वाक् का विशेष महत्त्व है, क्योंकि ये तीनों सृष्टि के कारण हैं। ज्ञान से मन, क्रिया से प्राण एवं अर्थ से वाक् की उत्पत्ति होती है। प्रस्तुत प्रसंग में वाक् का अर्थ स्थूल पदार्थ है। सांख्य दर्शन की भाषा में मन सत्त्व है, प्राण रजोगुण है और वाक् तमोगुण है। मन में कामना पैदा होती है, मन की कामना प्राण को गति देती है तथा प्राण की गति वाक अर्थात् पदार्थ का निर्माण करती है। वेद विज्ञान में प्राप्त त्रिकों की तुलना त्रिगुण से की जा सकती है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैंतमोगुण रजोगुण सत्त्वगुण घन विरल अवस्था वर्ण वैश्य ब्राह्मण पिण्ड अर्थ पिण्ड व्यष्टि समष्टि शरीर आत्मा पुरुष तरल क्षत्रिय क्रिया गति तैजस (वायु) हिरण्यगर्भ सूक्ष्म प्राण वैश्वानर (अग्नि) विराट स्थूल वाकू क्षर ज्ञान तेज प्राज्ञ (आदित्य) सर्वज्ञ कारण मन अक्षर अव्यय स्थूलता एवं सूक्ष्मता प्रकृति के गुणों के विभाजन का मुख्य आधार है- स्थूलता एवं सूक्ष्मता । तमोगुण युक्त सब अवस्थाएँ स्थूल होती हैं तथा सत्त्वगुण युक्त सूक्ष्म । स्थूल एवं सूक्ष्म के मध्य की अवस्थाएँ रजोगुण युक्त हैं अर्थात् रजोगुण मध्य में है वह स्थूल एवं सूक्ष्म का मिश्रित 40 ---- - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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