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जैन परम्परा में विनय की अवधारणा
जैन परम्परा में मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है । उपदेशामाला' में कहा गया है - विनय जिनशासन का मूल है। जो विनय रहित हैं उसे धर्म और तप कहाँ से प्राप्त होगा । आचार्य वट्टकेर के अनुसार विनयहीन व्यक्ति की सारी शिक्षा व्यर्थ है । शिक्षा का मूल विनय है। यह नहीं हो सकता है कि कोई व्यक्ति शिक्षित है और विनीत नहीं है। उनकी भाषा में शिक्षा का फल विनय और विनय का फल शेष समग्र कल्याण है । उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है कि जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है उसी प्रकार विनीत शिष्य धर्माचरण करने वालों के लिए आधार होता है। दशवैकालिक+ के अनुसार जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, आचार्य को सुनने की इच्छा रखता हुआ उनके वाक्य को ग्रहण कर उपदेश के अनुकूल आचरण करता है तथा गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है । विनय मानसिक दासता नहीं है किन्तु वह आत्मिक और व्यावहारिक विशेषताओं की अभिव्यञ्जना है। उसकी पृष्ठभूमि में इतने गुण समाहित रहते हैं - निर्द्वन्द्व - कलह आदि द्वन्द्वों की प्रवृत्ति का अभाव, ऋजुतासरलता, मृदुता - निश्छलता और निरभिमानता, लाघव- अनासक्ति । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में विनय की विशेष महत्ता है।
विनय का स्वरूप - 'विनय' शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक 'नी नयने' धातु से निष्पन्न है । विनयतीति विनयः । विनयति के दो अर्थ होते हैं- दूर करना और विशेष रूप से प्राप्त कराना। जो अप्रशस्त कर्मों को दूर करता है और विशेष रूप से स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है वह विनय है । यह विनय जिनवचन के ज्ञान को प्राप्त करने का फल है और समस्त प्रकार के कल्याण इस नियम से ही प्राप्त होते हैं, अतः इसे अवश्य करना चाहिए ।"
जैन आगमों में 'विनय' का प्रयोग आचार तथा उसकी विविध धाराओं के अर्थ
तुलसी प्रज्ञा जनवरी - मार्च,
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- डॉ. अशोक कुमार जैन
2005
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